Tuesday, December 27, 2011

पास खडा था भ्रष्टाचार

सुबह उठ कर आँख खुली तो पास खडा था भ्रष्टाचार,
अट्टहास लगाता हुआ, प्रश्न चिह्न लगाता हुआ.

जब पूछा मैंने, तुझमें इतने प्राण कहाँ से आये,
के तुम बिन पूछे, बिन बताए मेरे घर भी दौड़ आये.

हंसता हुआ, वो बोला, तुम शायद अवगत नहीं,
कल रात ही संसद में मुझे जीवनदान मिला है.

देश शायद सो रहा था, दिवा स्वप्न के बीज अपने घर में बो रहा था,
इतने में एक कानून आया, जिसने भ्रष्टाचार को मिटाने का संकल्प दोहराया.

बस उस कानून से मुझे जीवन दान मिला है, 
अब तक तो मैं सिर्फ घर के बाहर सड़क पर, दफ्तरों में पाया जाता था,
अब मैं घर में, आपके साथ खड़ा,
अट्टहास करूँगा, आपकी बेचैनी पर,
मेरा जीवन हरण करने चला था जो चौकीदार,
उसे ही रिश्वत से मैंने अपने साथ मिला लिया......रविन्द्र सिंह ढुल/२८.१२.२०११ 

शहीदों की चिताओं पर/जगदंबा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’


उरूजे कामयाबी पर कभी हिन्दोस्ताँ होगा 
रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियाँ होगा 

चखाएँगे मज़ा बर्बादिए गुलशन का गुलचीं को 
बहार आ जाएगी उस दम जब अपना बाग़बाँ होगा 

ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ ख़ंजरे क़ातिल 
पता कब फ़ैसला उनके हमारे दरमियाँ होगा 

जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हरगिज़ 
न जाने बाद मुर्दन मैं कहाँ औ तू कहाँ होगा 

वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है 
सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तिहाँ होगा 

शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले 
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा

कभी वह दिन भी आयेगा जब अपना राज देखेंगे 
जब अपनी ही जमीं होगी जब अपना आसमां होगा......

Saturday, December 24, 2011

धर्मनिरपेक्षता

रूचीनां वैचित्र्य अदृजुकुटिलनानापथजुषां.
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसमर्णाव इव. (शिव महिम्नः स्तोत्र, ७ )

अर्थात हे शिव, जिस प्रकार विभिन्न नदियाँ विभिन्न पर्वतों से निकलकर सरल तथा वक्र गति से प्रवाहित होती हुई अंततः समुद्र में ही मिल जाती है, उसी प्रकार अपनी विभिन्न प्रवृतियों के कारण जिन विभिन्न मार्गों को लोग ग्रहण करते हैं, सरल या वक्र रूप में विभिन्न लगने पर भी वे सभी लोग तुम तक ही पंहुचते हैं.

उपरोक्त श्लोक हिन्दू धर्म के सिद्धांत "सर्व धर्म समभाव" को प्रदर्शित करने वाला एक बेहद शानदार श्लोक है. यह आंग्लभाषा के शब्द "secularism" से बिल्कुल.  अलग है. आज कल धर्मनिरपेक्षता को अलग अलग तरह से परिभाषित करने की होड़ सी लगी है. मैं इस परिभाषा को राजनैतिक न बनाते हुए सीधे सीधे परिभाषित करने का प्रयास करता हूँ, जैसा कि हिन्दू धर्म में किया गया है. इस सिद्धांत को शब्द कोष के द्वारा परिभाषित करना बेहद आसान पर विचारों में समायोजन करना उतना ही कठिन एवं दुरूह कार्य है. धर्मनिरपेक्षता अर्थात किसी धर्म विशेष के लिए अपनी अपेक्षा न रखना, यह है इसका सीधा साधा शब्दकोष का अर्थ. पर यह लिया जाता है किसी और रूप में. इसे परिभाषित किया जाता है अपने अपने तरीके से एवं अपने अपने दृष्टिकोण से. गीता में कृष्ण कहते हैं"हे अर्जुन! जग में जहां जहां भी अच्छा कार्य होता है, धर्म का कार्य होता है, वहां मैं पाया जाता हूँ" तो प्रभु ने धर्मनिरपेक्षता को आयाम देते हुए कहा कि इसका अर्थ है सभी प्रकार की धार्मिक विचारधारा को सम्मान देना. तो आप सीधे सीधे देख सकते हैं फर्क दोनों विचारधाराओं में. एक कहती है किसी धार्मिक विचार को तवज्जो न दो, दूसरी कहती है सभी धर्मों को एक नजर से देखो और उनके विचारों का भी सम्मान करो.

उपरोक्त का सीधा सीधा मतलब निकालें तो वह यह होगा कि यदि किसी जगह पर किसी दुसरे धर्म से कोई सही विचार ग्रहण कर सकते हैं तो हम सही मायने में धर्म निरपेक्ष होंगे. अपने या दूसरों के धर्म या उनकी मान्यताओं को अधिक तवज्जो देने की आवश्यकता नहीं है. बस अपने विचार पर अडिग रहिये, यदि वह विचार सही है, वह मान्यता सही है तो बच जायेगी, वरना समाप्त हो जायेगी. चाहे शिव महिम्नः स्तोत्र हो या गीता, एक ही विचार दिखेगा कि लक्ष्य एक प्रभु तक पंहुचने का है, रास्ता चाहे कोई भी हो, पंहुचेगा एक ही जगह. तो हमारा विचार किसी और के विचार से श्रेष्ट कैसे हुआ? यदि अपने विचार को श्रेष्ट बनाना है तो अपनी विचारधारा को समृद्ध बनाना भी हमारा काम है. हिन्दू धर्म सहिष्णु है, यही हमारी विचारधारा है. यही एक कारण है जो स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार हमारी संस्कृति के जीवित रहने का कारण है. क्या कारण है ग्रीक, मिस्र या मेसोपोटामिया के लोग समाप्त हो गए, या मंगोल समाप्त हो गए? हम बचे हैं हमारे दृढ विचार धारा के कारण जो हमें यह सिखाती है "उदार चरितानाम वसुधैव कुटुम्बकम" अर्थात उदार चरित वालों के लिए तो सारी धरती एक कुटुंब के समान है.

अतः अपनी धर्मनिरपेक्षता को नया आयाम दीजिये, इसे धर्म के प्रति उदासीनता नहीं, वरना धर्म के प्रति जागरूकता बनाइये. निकाल फैंकिए ऐसे किसी भी विचार को जो संकीर्ण बनाता है आपकी मानसिकता को या आपको विनाश की और लेकर जाता है. माँ भारती आपके मार्ग को प्रशस्त करे.


रविन्द्र सिंह ढुल/२४.१२.२०११ 

एक तिनका

मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ,
एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ,
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।

मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा,
लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे,
ऐंठ बेचारी दबे पॉंवों भागने लगी।

जब किसी ढब से निकल तिनका गया,
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा,
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।

कवि श्री अयोध्या सिंह उपाध्याय की यह कविता नूतन को सम्मान देने की शिक्षा देती है. हम सब अक्सर उसे सम्मान देते हैं जो बड़ा है, नूतन को सम्मान देना तथा उसे उचित स्थान देना हमारा कर्तव्य है, तभी हम पूर्णता की और बढ़ सकते हैं.

सच हम नहीं सच तुम नहीं


सच हम नहीं सच तुम नहीं
सच है सतत संघर्ष ही ।


संघर्ष से हट कर जिए तो क्या जिए हम या कि तुम।
जो नत हुआ वह मृत हुआ ज्यों वृन्त से झर कर कुसुम।


जो पंथ भूल रुका नहीं,
जो हार देखा झुका नहीं,


जिसने मरण को भी लिया हो जीत, है जीवन वही।


सच हम नहीं सच तुम नहीं।




ऐसा करो जिससे न प्राणों में कहीं जड़ता रहे।
जो है जहाँ चुपचाप अपने आपसे लड़ता रहे।


जो भी परिस्थितियाँ मिलें,
काँटें चुभें, कलियाँ खिलें,


टूटे नहीं इन्सान, बस सन्देश यौवन का यही।


सच हम नहीं सच तुम नहीं।




हमने रचा आओ हमीं अब तोड़ दें इस प्यार को।
यह क्या मिलन, मिलना वही जो मोड़ दे मँझधार को।


जो साथ कूलों के चले,
जो ढाल पाते ही ढले,


यह ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी जो सिर्फ़ पानी-सी बही।


सच हम नहीं सच तुम नहीं।




अपने हृदय का सत्य अपने आप हमको खोजना।
अपने नयन का नीर अपने आप हमको पोंछना।


आकाश सुख देगा नहीं,
धरती पसीजी है कहीं,


हर एक राही को भटक कर ही दिशा मिलती रही


सच हम नहीं सच तुम नहीं।




बेकार है मुस्कान से ढकना हृदय की खिन्नता।
आदर्श हो सकती नहीं तन और मन की भिन्नता।


जब तक बंधी है चेतना,
जब तक प्रणय दुख से घना,


तब तक न मानूँगा कभी इस राह को ही मैं सही।


सच हम नहीं सच तुम नहीं।जगदीश गुप्त (Jagdish Gupt)

उठो धरा के अमर सपूतो

उठो धरा के अमर सपूतो
पुनः नया निर्माण करो ।
जन-जन के जीवन में फिर से
नई स्फूर्ति, नव प्राण भरो ।

नया प्रात है, नई बात है,
नई किरण है, ज्योति नई ।
नई उमंगें, नई तरंगे,
नई आस है, साँस नई ।
युग-युग के मुरझे सुमनों में,
नई-नई मुसकान भरो ।

डाल-डाल पर बैठ विहग कुछ
नए स्वरों में गाते हैं ।
गुन-गुन-गुन-गुन करते भौंरे
मस्त हुए मँडराते हैं ।
नवयुग की नूतन वीणा में
नया राग, नवगान भरो ।

कली-कली खिल रही इधर
वह फूल-फूल मुस्काया है ।
धरती माँ की आज हो रही
नई सुनहरी काया है ।
नूतन मंगलमयी ध्वनियों से
गुंजित जग-उद्यान करो ।

सरस्वती का पावन मंदिर
यह संपत्ति तुम्हारी है ।
तुम में से हर बालक इसका
रक्षक और पुजारी है ।
शत-शत दीपक जला ज्ञान के
नवयुग का आह्वान करो ।

उठो धरा के अमर सपूतो,
पुनः नया निर्माण करो ।द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

Friday, December 23, 2011

कानून की देवी तेरी जय जय कार


कानून की देवी तेरी जय जय कार,
छाया जब हर जगह अन्धकार,
राजा करता हो जनता पर अत्याचार,
ले हाथ में तराजू, जब उठाया तुमने यह बीड़ा,
हिल गयी सरकारें, पलट गए ताज.

कहती सरकारें, सीमा में नहीं कानून अब,
देवी करती सरकार पर अत्याचार,
पर पूछती है कलम मेरी इन सरकारों से,
क्यों छीना निवाला गरीब का, क्यों फैलाया भ्रष्टाचार.-रविन्द्र सिंह ढुल/दिनांक २३.१२.२०११

आराम करो


एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।
क्या रक्खा है माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।

आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।

यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ -- है मज़ा मूर्ख कहलाने में।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।

मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ।
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।
मेरी गीता में लिखा हुआ -- सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।

अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।

मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।
- गोपालप्रसाद व्यास

आग की भीख


धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा।
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है,
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है?
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ।
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ।

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।
तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ।
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ।

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है,
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ डेर हो रहा है,
है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है!
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है,
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।
पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ।
जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ।

मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है,
अरमानआरज़ू की लाशें निकल रही हैं।
भीगीखुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं,
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं,
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे।
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ।
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ।

आँसूभरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,
मेरे शमशान में आ श्रंगी जरा बजा दे।
फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे,
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे।
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे,
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ।
बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ।

ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे।
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे,
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे।
हम दे चुके लहु हैं, तू देवता विभा दे,
अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे।
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ।
तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ।
- दिनकर

Sunday, December 18, 2011

ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

सोचा करता बैठ अकेले,
गत जीवन के सुख-दुख झेले,
दंशनकारी सुधियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

नहीं खोजने जाता मरहम,
होकर अपने प्रति अति निर्मम,
उर के घावों को आँसू के खारे जल से नहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

आह निकल मुख से जाती है,
मानव की ही तो छाती है,
लाज नहीं मुझको देवों में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ! -हरिवंश राय 'बच्चन'

अब तो पथ यही है |

जिंदगी ने कर लिया स्वीकार,
अब तो पथ यही है|

अब उभरते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है,
एक हलका सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है,
यह शिला पिघले न पिघले, रास्ता नम हो चला है,
क्यों करूँ आकाश की मनुहार ,
अब तो पथ यही है |

क्या भरोसा, कांच का घट है, किसी दिन फूट जाए,
एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए,
एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए,
आज हर नक्षत्र है अनुदार,
अब तो पथ यही है|

यह लड़ाई, जो की अपने आप से मैंने लड़ी है,
यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पढ़ी है,
यह पहाड़ी पाँव क्या चढ़ते, इरादों ने चढ़ी है,
कल दरीचे ही बनेंगे द्वार,
अब तो पथ यही है |(दुष्यंत कुमार)

साथी, सब कुछ सहना होगा!


मानव पर जगती का शासन,
जगती पर संसृति का बंधन,
संसृति को भी और किसी के प्रतिबंधों में रहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!
हम क्या हैं जगती के सर में!
जगती क्या, संसृति सागर में!
एक प्रबल धारा में हमको लघु तिनके-सा बहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!
आओ, अपनी लघुता जानें,
अपनी निर्बलता पहचानें,
जैसे जग रहता आया है उसी तरह से रहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!–हरिवंश राय बच्चन 

पथ की पहचान


पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।
पुस्तकों में है नहीं
छापी गई इसकी कहानी
हाल इसका ज्ञात होता
है न औरों की जबानी
अनगिनत राही गए
इस राह से उनका पता क्या
पर गए कुछ लोग इस पर
छोड़ पैरों की निशानी
यह निशानी मूक होकर
भी बहुत कुछ बोलती है
खोल इसका अर्थ पंथी
पंथ का अनुमान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।
यह बुरा है या कि अच्छा
व्यर्थ दिन इस पर बिताना
अब असंभव छोड़ यह पथ
दूसरे पर पग बढ़ाना
तू इसे अच्छा समझ
यात्रा सरल इससे बनेगी
सोच मत केवल तुझे ही
यह पड़ा मन में बिठाना
हर सफल पंथी यही
विश्वास ले इस पर बढ़ा है
तू इसी पर आज अपने
चित्त का अवधान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।
है अनिश्चित किस जगह पर
सरित गिरि गह्वर मिलेंगे
है अनिश्चित किस जगह पर
बाग वन सुंदर मिलेंगे
किस जगह यात्रा खतम हो
जाएगी यह भी अनिश्चित
है अनिश्चित कब सुमन कब
कंटकों के शर मिलेंगे
कौन सहसा छू जाएँगे
मिलेंगे कौन सहसा
आ पड़े कुछ भी रुकेगा
तू न ऐसी आन कर ले।
पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।-हरिवंश राय बच्चन 

Sunday, December 11, 2011

हालात के क़दमों पे कलंदर नहीं गिरता -क़तील शिफाई

हालात के क़दमों पे कलंदर नहीं गिरता
टूटे भी जो तारा, ज़मीं पे नहीं गिरता

गिरते हैं समंदर में बड़े शौक़ से दरया
लेकिन किसी दरया में समंदर नहीं गिरता 

समझो वहां फलदार शजर कोई नहीं है
वोह सहन कि जिसमें पत्थर नहीं गिरता

हैरान है कई रोज़ से ठहरा हुआ पानी
तालाब में अब क्यूं कोई कंकर नहीं गिरता

इस बंदा-ए-खुद्दार पे नबियों का है साया
जो भूख में भी लुकमा-ए-तर पर नहीं गिरता

कायम है क़तील अब ये मेरे सर के सुतून पर
भून्चाल भी आये तो मेरा घर नहीं गिरता

इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूं; / रामावतार त्यागी

इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूं; 
मत बुझाओ !
जब मिलेगी, रोशनी मुझसे मिलेगी !!

पांव तो मेरे थकन ने छील डाले 
अब विचारों के सहारे चल रहा हूं
आंसूओं से जन्म दे-देकर हंसी को
एक मंदिर के दिये-सा जल रहा हूं;
मैं जहां धर दूं कदम वह राजपथ है;
मत मिटाओ
पांव मेरे देखकर दुनिया चलेगी !!

बेबसी मेरे अधर इतने न खोलो
जो कि अपना मोल बतलाता फिरूं मैं
इस कदर नफ़रत न बरसाओ नयन से
प्यार को हर गांव दफनाता फिरूं मैं
एक अंगारा गरम मैं ही बचा हूं ।
मत बुझाओ ।
जब जलेगी, आरती मुझसे जलेगी !!

जी रहो हो किस कला का नाम लेकर
कुछ पता भी है कि वह कैसे बची है,
सभ्यता की जिस अटारी पर खड़े हो
वह हमीं बदनाम लोगों ने रची है;
मैं बहारों का अकेला वंशधर हूं,
मत सुखाऒ !
मैं खिलूंगा, तब नई बगिया खिलेगी !!

शाम ने सबके मुखों पर आग मल दी
मैं जला हूं, तो सुबह लाकर बुझूंगा
ज़िंदगी सारी गुनाहों में बिताकर
जब मरूंगा देवता बनकर पूजूंगा;
आंसूओं को देखकर मेरी हंसी तुम
मत उड़ाओ !
मैं न रोऊं, तो शिला कैसे गलेगी !!

और भी दूँ / रामावतार त्यागी


मन समर्पित, तन समर्पित,
और यह जीवन समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

मॉं तुम्‍हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन,
किंतु इतना कर रहा, फिर भी निवेदन-
थाल में लाऊँ सजाकर भाल में जब भी,
कर दया स्‍वीकार लेना यह समर्पण।
गान अर्पित, प्राण अर्पित,
रक्‍त का कण-कण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

मॉंज दो तलवार को, लाओ न देरी,
बॉंध दो कसकर, कमर पर ढाल मेरी,
भाल पर मल दो, चरण की धूल थोड़ी,
शीश पर आशीष की छाया धनेरी।
स्‍वप्‍न अर्पित, प्रश्‍न अर्पित,
आयु का क्षण-क्षण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो,
गॉंव मेरी, द्वार-घर मेरी, ऑंगन, क्षमा दो,
आज सीधे हाथ में तलवार दे-दो,
और बाऍं हाथ में ध्‍वज को थमा दो।

सुमन अर्पित, चमन अर्पित,
नीड़ का तृण-तृण समर्पित।
चहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ। साभार कविताकोश, एक ऐसी जगह जिसके बिना मुझे दिन अधूरा लगता है.

Saturday, December 10, 2011

राह हारी मैं न हारा!-–शील

राह हारी मैं न हारा!
थक गए पथ धूल के-
उड़ते हुए रज-कण घनेरे।
पर न अब तक मिट सके हैं,
वायु में पदचिह्न मेरे।
जो प्रकृति के जन्म ही से ले चुके गति का सहारा!
राह हारी मैं न हारा!
स्वप्न मग्ना रात्रि सोई,
दिवस संध्या के किनारे
थक गए वन-विहग, मृगतरु-
थके सूरज-चाँद-तारे।
पर न अब तक थका मेरे लक्ष्य का ध्रुव ध्येय तारा।
राह हारी मैं न हारा!-–शील

जो इस पथ पर टिक पाया, वह केवल जीने का अधिकारी !/ महेंद्र भटनागर

ध्येय पहुँचने की तैयारी !
कितना बीहड़ दुर्गम रे पथ,
उलझ-उलझ जाता जीवन-रथ,
पर, रोक नहीं सकती मेरी गति को कोई भी लाचारी !

माना झंझा मुझको घेरे,
पर, चरण कहाँ डगमग मेरे ?
किंचित न कभी विपदाओं के सम्मुख मैंने हिम्मत हारी !

इस जीवन में कितनी हलचल,
बिखरा मिलता है गरल-गरल,
साधन हीना, संबल हीना, पर संघर्ष किये हैं भारी !

इस पथ पर चलना बड़ा कठिन,
इस पथ पर जलना बड़ा कठिन,
जो इस पथ पर टिक पाया, वह केवल जीने का अधिकारी !
                                                                           — महेंद्र भटनागर (अन्तराल से )

एक भी आँसू न कर बेकार /रामावतार त्यागी

एक भी आँसू न कर बेकार
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!
पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है
कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
जाने देवता को कौनसा भा जाय!
चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ
पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं
हर छलकते अश्रु को कर प्यार
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाय!
व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की
काम अपने पाँव ही आते सफर में
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा
जो स्वयं गिर जाय अपनी ही नज़र में
हर लहर का कर प्रणय स्वीकार
जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए!

वसुधा का नेता कौन हुआ?/रामधारी सिंह दिनकर

सच है, विपत्ति जब आती है,कायर को ही दहलाती है,
शूरमा नहीं विचलित होते,क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,काँटों में राह बनाते हैं।

मुख से न कभी उफ कहते हैं,संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाने को,बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।

है कौन विघ्न ऐसा जग में,टिक सके वीर नर के मग में
खम ठोंक ठेलता है जब नर,पर्वत के जाते पाँव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है,पत्थर पानी बन जाता है।

गुण बड़े एक से एक प्रखर,हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो,वर्तिका-बीच उजियाली हो।
बत्ती जो नहीं जलाता हैरोशनी नहीं वह पाता है।

पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहदी जब सहती है प्रहार,बनती ललनाओं का सिंगार।
जब फूल पिरोये जाते हैं,हम उनको गले लगाते हैं।

वसुधा का नेता कौन हुआ?भूखण्ड-विजेता कौन हुआ?
अतुलित यश क्रेता कौन हुआ?नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ?
जिसने न कभी आराम किया,विघ्नों में रहकर नाम किया।

जब विघ्न सामने आते हैं,सोते से हमें जगाते हैं,
मन को मरोड़ते हैं पल-पल,तन को झँझोरते हैं पल-पल।
सत्पथ की ओर लगाकर ही,जाते हैं हमें जगाकर ही।

वाटिका और वन एक नहीं,आराम और रण एक नहीं।
वर्षा, अंधड़, आतप अखंड,पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।
वन में प्रसून तो खिलते हैं,बागों में शाल न मिलते हैं।

कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर,छाया देता केवल अम्बर,
विपदाएँ दूध पिलाती हैं,लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।
जो लाक्षा-गृह में जलते हैं,वे ही शूरमा निकलते हैं।

बढ़कर विपत्तियों पर छा जा,मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छन जाने दे,तन को पत्थर बन जाने दे।
तू स्वयं तेज भयकारी है,क्या कर सकती चिनगारी है?- रामधारी सिंह दिनकर

Saturday, November 26, 2011

बढे चलो-बढे चलो/"वामिक'जौनपुरी

बढे चलो-बढे चलो
यही निदा-ए-वक्त है 
ये कायनात
ये जमीं
निजामे-शम्स का नगीं
ये कहकशां सा रास्ता
इसी पे गामज़न रहो
ये तीरगी तो आरिजी है, मत डरो
यहाँ से दूर, कुछ परे पे सुब्ह का मुकाम है
स्ला-ए-बज्मे-आम है
कदम कदम पे इस कदर रुकावटें कि अल अमीं
मगर अजीब शान से ये कारवां रवां-दवां
चला ही जाएगा परे
उफक से भी परे नहीं
तुम्हारे नक़्शे-पा में जिंदगी का रंग
हंस रहा है ताकि पीछे
आने वालों को पता ये चल सके
कि इस तरफ से एक कारवां गुजर चुका है कल
और अपने जिस्मों जां को वक्फ कर चुका है कल
बढे चलो बढे चलो- 'वामिक'जौनपुरी 

अर्थ: निदा-ए-वक़्त: वक़्त की पुकार, कायनात: ब्रह्माण्ड, नगीं:नगीना, कहकशा-सां: आकाश-गंगा जैसा, गामजन:चलते, तीरगी:अँधेरा, बज्मे-ए-आम: जन साधारण के लिए आमंत्रण, अल-अमां: त्राहि, उफक: क्षितिज, नक़्शे-पा: पदचिन्ह, वक्फ: अर्पण 

Sunday, November 13, 2011

जगत में बोहत दुखी ज़मींदार


धन जोड़ रहे मुख मोड़ रहे यो मौज उडावै संसार,
जगत में बोहत दुखी ज़मींदार...

आधी रात पहर का तड़का देखै बाहर लिकड़ कै नै,
ढाई गज का पाट्या खंडवा ऊपर गोस्सा धर कै नै,
बाज्जू का कुड़ता पहरया ऊंची धोत्ती कर कै नै,
करै चालण की त्यारी खेत में दोनूं बैल पकड़ कै नै,

ऊपर धूप पड़ै, नीचै धरती तप्पै ..
अर यो बीच में तप्पै ज़मींदार
जगत में बोहत दुखी ज़मींदार...

दोहफारे की रोट्टी ले कै ज़मीदारणी आई ,
गंठा-रोट्टी ल्याई खेत में, वा साग बणावन ना पाई,
अर ज़मींदार नै आपणे करम मैं वें ऐ सोच कै खायी..

तारयाँ की छांह हाळी आया - ना नहाया ना खाया,
थोडी सी वार में जगा दिया वो, सोवण बी ना पाया,
ठा कै कस्सी चाल्या खेत मैं नाक्का-बंधा लाया,
नाक्के मैं आप ढ़ह पडया मरता हुआ जडाया,,
ये सरकारी, ये पटवारी सब सोवैं पैर पसार
जगत मैं बोहत दुखी ज़मींदार...

करी लामणी, पैर गेर लिया जेट्ठ-साढ़ के म्हीने मैं,
ज़मींदार का सारा कुणबा हो रहया दुखी पसीने मैं,
आंधी अर तूफ़ान आग्या बहग्यी रास्य जोहड़ के मेंह..

चार धडी भुरळी के दाणे ईब रहे सैं बाक्की,
लुहार बी न्यू कहण लाग-ग्या जडी थी मन्नै दरांती,
गाड्डी ऊंघी, जुआ बनाया कहण लाग-ग्या खात्ती,
चूहडी अर चमारी दोन्नूं पैर लेवन नै आई सें,

इब भुरली के दाणे चुगरदे नै, जाने यें भी लेग्ये खात्ती-लुहार..
जगत मैं बोहत ए घणा दुखी ज़मींदार...

Saturday, November 12, 2011

किसान की व्यथा


तन्ने अन्नदाता जीवन दाता कहै, सब क्याहें का पालन हार,
जमींदार सुन कर्मबीर तू, सब तेन बती हीतमदार.

कमा कमा दूज्यान का भरे, तन्ने मिलता न टूकड़ा पेट भराई,
जिन खातिर दिन रात कमावे, के जाने वै पीड पराई.
कुडकी ले कै आन खड़े हों, लेज्याँ सारी करी कराई,
बछिया तक लाने में लग्ज्या, डूबी नैया तरी तराई,
तेरे कर्म व्यर्थ, जा भरी भराई, बन मूल रहा न्युएँ भार..-पंडित लख्मीचंद 

किसान की ये व्यथा हरियाणा की इस पुरानी रागिनी में है, क्या कुछ बदला है? यदि नहीं तो किस तरक्की की बात कर रहे हैं हम?

Saturday, October 29, 2011

मेरी कहानी, मेरी आवाज

यह मेरी कहानी है, बस इसमें सोच अलग है, तरीका अलग है. व्यक्ति विशेष क्या सोचता है, समाज क्या सोचता है, इस से मेरा कोई सरोकार कभी भी नहीं रहा है. मेरा पथ अलग है, चाहे वह मुझे सफलता की रौशनी दिखाए या असफलता की गहराई, पर इससे मेरे इरादे कभी भी कमजोर नहीं हो सकते. एक शायर ने कहा है "मेरी तकदीर को बदल देंगे, मेरे पुख्ता इरादे,मेरी किस्मत नहीं मुहताज, मेरे हाथों की लकीरों की." बस मेरे जीवन का सार यहीं कहीं है. यह यात्रा मेरे लिए विशेष है, और मेरे साथ चलने वाले यात्री भी विशेष हैं. यात्रा अलग, यात्री अलग, मंजिल कहाँ लेकर जायेगी इस बारे में सोचना मेरे लिए महत्वपूर्ण नहीं है. इसके बजाये मेरे लिए महत्वपूर्ण है कि यह राह किसी और के पदों को, किसी और के स्वप्नों को रौंद कर न चले. बस इस नयी राह को ही मैं यहाँ मेरे इस ब्लॉग में लिखूंगा. मुझे शायद विश्वास है कि कोई इसे न पढ़े, चूँकि एक आम इंसान के जीवन में किसी कि कोई दिलचस्पी नहीं होती. पर फिर भी एक आम इंसान होने के बावजूद अपने जीवन को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता मेरे पास है. कम-से-कम जीवन के किसी मौड़ पर ऐसा न लगे कि मैंने अपने अनुभवों को संकलित नहीं किया. इस लिए मैं लिख रहा हूँ. यह कलम महत्वपूर्ण है, उतनी ही महत्वपूर्ण जितना यह जीवन है. 

रविन्द्र सिंह ढुल 

हम शर्मिंदा हैं

किसी देश को समाप्त करना है तो उसके इतिहास को समाप्त कर दीजिये.यह उक्ति ब्रिटिश अफसरों ने अपनाई थी और उसका नतीजा सामने है. कितने व्यक्ति आज के दिन हमारी राष्ट्र भाषा को जानते हैं, हमारे इतिहास एवं संस्कृति को जानते हैं. अत्यंत शर्मिंदा करने वाले अनेकों कार्य इस देश में लगातार हो रहे हैं. राजनीति शास्त्र हम विदेशी सीखते हैं, अनुशासन हम विदेशी सीखते हैं, भाषा हम विदेशी सीखते हैं. १०० वर्ष और रुक जाइए भारत का  इतिहास बिल्कुल मिट जाएगा हमारे बच्चों के भीतर से. झांसी की रानी की वीरता की कहानियां हम भूल चुके हैं. गीता हम अंग्रेजी में पढ़ते हैं. धर्म को हम पाखण्ड मानते हैं और हिंदी बोलने वाले को पाखंडी. बहुत बुरा लगता है यह देख कर कि अपना कद ऊंचा करने के लिए जब दो हिंदी भाषी अंग्रेजी में बात करते हैं. भारत वर्ष तो कब का टूट चुका है, हिंद भी टूट गया तो हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा. 


Friday, October 28, 2011

प्रयास

कुछ व्यक्तियों का सोचना रहता है कि क्यों इतना ज्ञान देने का निरर्थक प्रयास मैं करता रहता हूँ. इसका उत्तर ऋग्वेद में दिया है "वदन् ब्रःमावदतो वनीयान. ( १०.११७.७ ). अर्थात उपदेश देने वाला विद्वान् चुप रहने वाले से श्रेष्ट है. अपने भावों को व्यक्त करना कहीं भी बुरा नहीं कहा जा सकता. उस से प्रभावित होना या न होना पढने या सुनने वाले का नीहित अधिकार है. यदि किसी महत्वपूर्ण विषय पर टिप्पणी से किसी व्यक्ति को दिशा मिलती है तो यह प्रयास सार्थक ही कहा जाएगा. भले ही अपने आप को विद्वान् समझना थोड़ा अधिक है अपितु फिर भी पढ़ा लिखा होने का गौरव तो मुझे प्राप्त है ही.अतः मैं प्रयास करता रहूँगा. उसे सार्थक या निरर्थक समझना दूसरों का कार्य है. 


नया जीवन

मेरा जीवन राष्ट्र, धर्म एवं हिंदी को समर्पित है. अपना अंदाज मैं स्वयं हूँ. मेरी शिक्षक मेरी पुस्तकें एवं मेरा मस्तिष्क है. अब ज़रा कुछ नया प्रारंभ किया जाए. थोमस एल्व एडिसन ने एक बार कहा था कि १००० निष्क्रिय विचारों से १ सक्रीय विचार अधिक महत्वपूर्ण है. निष्क्रियता छोड़ समर में कूदने का समय आ गया है, वह भी अत्यंत वेग से. माँ भारती हमेशा की तरह मेरा मार्ग प्रशस्त करेगी. जय हिंद. 


Wednesday, October 26, 2011

ढीली करो धनुष की डोरी – रामधारी सिंह "दिनकर"


राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की यह महान रचना सोचने पर मजबूर करती है. यह रचना आजादी के सात वर्ष के बाद लिखी गयी थी. इसमें श्री दिनकर की व्यथा स्पष्ट है. इसे उन्होंने उस समय व्याप्त भ्रष्टाचार से त्रस्त होकर लिखा था. इसे पढ़ें एवं सोचें...जय हिंद.

ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,
 किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?
किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?

कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान ।

फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले !
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है ।

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार ।

वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है
माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है

पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज
सात(साठ) वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में

समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा

समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं

कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे

समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर

समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल

तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध   – रामधारी सिंह "दिनकर"

Friday, October 21, 2011

धर्म/ गोपाल दास नीरज

जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना,
उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है..

जिस वक़्त जीना गैर मुमकिन सा लगे,
उस वक़्त जीना फर्ज है इंसान का,
लाजिम लहर के साथ है तब खेलना,
जब हो समुन्द्र पे नशा तूफ़ान का
जिस वायु का दीपक बुझना ध्येय हो
उस वायु में दीपक जलाना धर्म है.

हो नहीं मंजिल कहीं जिस राह की
उस राह चलना चाहिए इंसान को
जिस दर्द से सारी उम्र रोते कटे
वह दर्द पाना है जरूरी प्यार को
जिस चाह का हस्ती मिटाना नाम है
उस चाह पर हस्ती मिटाना धर्म है.

आदत पड़ी हो भूल जाने की जिसे
हर दम उसी का नाम हो हर सांस पर
उसकी खबर में ही सफ़र सारा कटे
जो हर नजर से हर तरह हो बेखबर
जिस आँख का आखें चुराना काम हो
उस आँख से आखें मिलाना धर्म है...

जब हाथ से टूटे न अपनी हथकड़ी
तब मांग लो ताकत स्वयम जंजीर से
जिस दम न थमती हो नयन सावन झड़ी 
उस दम हंसी ले लो किसी तस्वीर से
जब गीत गाना गुनगुनाना जुर्म हो
तब गीत गाना गुनगुनाना धर्म है.

Friday, September 16, 2011

नई शुरुआत

ज़मीर कांप ही जाता है आप कुछ भी कहें,
वो हो गुनाह से पहले या हो गुनाह के बाद.

एक शायर ने जब यह लिखा होगा तो शायद उसके दिलो-दिमाग में बहुत पवित्र विचार भरे होंगे, वरना आज के दिन ज़मीर की बात करना भी बेमानी हो चला है. भ्रष्टाचार हमारे अन्दर इतनी बुरी तरह से घर कर चुका है कि विचारों की पवित्रता की बात करने वाले की तो खिल्ली उडाई जाती है. क्या यह विडम्बना नहीं है. हमारी शिक्षा व्यवस्था में नैतिक शिक्षा का कोइ स्थान नहीं है इसलिए ही हमारे नौजवान इमानदारी, पवित्रता, नैतिकता जैसे शब्दों की कीमत नहीं जानते. क्या हम कुछ कर पायेंगे इसे बदलने के लिए. 

रविन्द्र सिंह


 

Saturday, August 20, 2011

सेठ के चार सेवक और "लोकपाल"


एक कथा प्रस्तुत कर रहा हूँ, ये मुझे एक परम मित्र ने पिछले दिनों सुनाई थी. एक सेठ था जो हर रोज रात को एक किलोग्राम दूध पीता था. उसने अपने बुढापे के कारण एक सेवक रख लिया. उस सेवक का कार्य केवल रात को दूध गर्म करके सेठ को देना था. उस नौकर ने कुछ ही दिन में गड़बड़ शुरू कर दी. वह रात को एक पाव दूध स्वयं पी जाता और बाकी सेठ को पानी मिला के दे देता. सेठ को कुछ न सूझी, उसने एक और सेवक रख लिया, उस सेवक का काम था पुराने नौकर को देखना कि कहीं वह गड़बड़ तो नहीं कर रहा. अब दोनों आपस में मिल गए और सेठ को केवल आधा किलो दूध मिलता. सेठ बड़ा परेशान हुआ, कुछ सूझता न देख उसने एक सेवक को रख लिया और दोनों सेवकों को उसके अन्दर कर दिया. अब तीनो ने मिल बाँट कर दूध पीना शुरू कर दिया और सेठ को केवल एक पाव दूध देते. सेठ बेहद परेशान हो गया और उसने एक सेवक रख लिया अपने बाकी भ्रष्ट सेवकों के ऊपर. उसे जिम्मेदारी दी गयी कि अपने तीन सेवकों के भ्रष्ट आचरण पर नज़र रखे और समय पर सेठ को बताए. उस सेवक ने पहले तो तीनों सेवकों को देखा, सेठ को अपने विश्वास में लिया और फिर अपना हिस्सा माँगा. जब तीनों ने बताया कि वे कैसे सेठ को बेवक़ूफ़ बना रहे हैं तो चौथा सेवक बोला अब सेठ को कोई दूध नहीं देगा. योजना अनुसार चौथे सेवक ने सेठ को दूध नहीं दिया. थका हुआ सेठ रात को दूध का इंतज़ार करते हुए सो गया. सोने के बाद चौथे सेवक ने सेठ के होठों पर मलाई लगा दी. सुबह उठने के बाद सेठ ने सबसे पहले दूध की बात पूछी तो सेवक ने बताया सेठ जी अपने मूंह पर लगी मलाई देख लो, रात को आपने दूध पिया तो था, पर शायद आप भूल गए. 

अब सोचिये, कहीं आपका लोकपाल सेठ के चौथे सेवक की तरह तो नहीं है. क्या नैतिक उत्थान के बिना राष्ट्र का उत्थान संभव है? मेरा उत्तर "नहीं " होगा.