Sunday, March 17, 2013

"एक और नया भारत कहता है कि पाश्चात्य भाव, भाषा, खान-पान और वेश भूषा का अवलंबन करने से ही हम लोग पाश्चात्य शक्तियों की भांति शक्तिमान हो सकेंगे। दूसरी और प्राचीन भारत कहता है कि मूर्ख!नक़ल करने से कहीं दूसरों का भाव अपना हुआ है? बिना उपार्जन किये कोई वास्तु अपनी नहीं होती। क्या सिंह की खाल पहन कर गधा कहीं सिंह हुआ है?
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एक कम बुद्धि वाला लड़का श्री राम कृष्ण देव के सामने सदा शास्त्रों की निंदा किया करता था। उसने एक बार गीता की बड़ी प्रशंसा की। इस पर शिर राम कृष्ण देव ने कहा, "किसी अंग्रेज विद्वान ने गीता की प्रशंसा की होगी। इसीलिए यह भी उसकी प्रशंसा कर रहा है।"
ऐ भारत! यही विकट भय का कारण है। हम लोगों में पाश्चात्य जातियों की नक़ल करने की इच्छा ऐसी प्रबल होती जाती है कि भले बुरे का निश्चय अब विचार-बुद्धि , शास्त्र या हिताहित ज्ञान से नहीं किया जाता। गोर लोग जिस भाव की प्रशंसा करें, वाही अच्छा है और वे जिसकी निंदा करें , वाही बुरा!अफ़सोस!इससे बढ़कर मूर्खता का परिचय और क्या होगा?
पाश्चात्य स्त्रियाँ स्वाधीन भाव से फिरती हैं, इसलिए वही चाल अच्छी है; वे अपने लिए वर आप चुन लेती हैं, इसलिए वही उन्नति का उच्चतम सोपान है; पश्चातीय पुरुष हम लोगों की वेश-भूषा, खान-पान को घृणा की दृष्टि से देखते हैं, इसलिए हमारी ये चीजें बहुत बहुत बुरी हैं; पाश्चात्य लोग मूर्ती  को   कहते हैं,तो वह भी बड़ी ही खराब होगी, क्यों न हो?

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यहाँ पर हम इस बात का विचार नहीं करते कि ये प्रथाएं चलनी चाहिए या रुकनी चाहिए। परन्तु यदि पाश्चात्य लोगों की घृणा दृष्टि के कारण ही हमारे रीति रिवाज बुरे साबित होतें हों तो उसका प्रतिवाद अवश्य होना चाहिए।"
स्वामी विवेकानंद जी के लेखों में से उपरोक्त अमूल्य वचन आज के जमाने पर किस तरह से लागू होते हैं; ज़रा सोचिये।

Saturday, March 16, 2013

"यथा खरः चन्दन, भारवाही भारस्य वेत्ता न तु चन्दनस्य।" अर्थात चन्दन की लकडियाँ ढोने वाला गधा, उसके मूल्य को नहीं केवल उसके बोझ को समझ सकता है।
किसी अज्ञानी को कितना भी शिक्षा दे दीजिये, वह कभी भी ऋषि नहीं बन पायेगा। हमारी शिक्षा पद्धति चन्दन की लकडिया तो ढोना सिखाती है पर  मूल्य कहाँ बताती है।
स्वामी विवेकानंद जी के शब्दों में "जिस शिक्षा के द्वारा हम अपना जीवन गढ़ सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र गठित कर सकें और विचारों का सामंजस्य कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है।"
ज़रा सोचिये की क्या हमारा समाज ऐसी शिक्षा दे पा रहा है। यदि नहीं तो कैसे हम अपने समाज को विकसित मानने की भूल कर रहे हैं?

Friday, March 15, 2013

स्वतंत्रता और परतंत्रता में जो फर्क है वह है "स्व" एवं "पर" का। यदि आप स्वयं अपने राष्ट्र को अपना कर्तव्य, अपना सब कुछ मानते हैं, उसकी उन्नति में अपना योगदान देते हैं, तभी तो आप स्वतंत्र हुए। केवल आजादी ही इसका मतलब कैसे हुआ? यदि आपके मन माफिक, आपके कर्म से और आपके कर्तव्य से यह समाज नहीं चल रहा, यह राष्ट्र नहीं चल रहा तो आप परतंत्र हैं। आजादी का झूठा बोध अपने अन्दर न लेकर आयें। हर अधिकार एक कर्तव्य के साथ आता है; यदि कर्तव्य निर्वहन में हम कुछ नहीं कर रहे तो अधिकार में यथेच्छ कैसे मिलेगा। आपकी आजादी एक दिवा स्वप्न है। जब तक भारत का हर एक नागरिक कर्तव्य निर्वाह करने के लिए आगे नहीं बढेगा; तब तक वह परतंत्र है स्वतंत्र नहीं।
बड़ा असभ्य महसूस करता हूँ मैं भारत में रहने में जब सुबह सुबह अखबारों में खबर पढता हूँ कि एक समाज की, एक धर्म की, एक जाति की अनदेखी हो रही है और वह समाज आन्दोलन करेगा। भारत का संविधान सबको बराबरी का अधिकार प्रदान करता है फिर भी न तो सरकारें संजीदा हैं और न ही समाज संजीदा है। हम बराबरी पर तभी रख पायेंगे किसी को यदि यह समाज एक समाज कहलाएगा। अनेकता की आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता है तो केवल एकता की। जब हम भूल जायेंगे कि हम किसी फलां जाति /धर्म के सदस्य हैं और भारत के नागरिक मानेगे स्वयं को तभी संविधान की सत्ता इस राष्ट्र में स्थापित होगी। वरना यह सब दिवा स्वप्न के अलावा कुछ नहीं है।