Sunday, August 18, 2013

भारत

अपना भारत वो भारत है जिसके पीछे संसार चला।  आज बड़े दिन के बाद पूर्व और पश्चिम का यह गीत सुना।  हम कहाँ थे और कहाँ पंहुच गए! भारत अर्थात आर्यावर्त; न केवल इसकी भाषा अपितु इसकी संस्कृति, वेशभूषा, धर्म, मान्यताएं और यहाँ तक कि नागरिक भी एक गंभीर खतरे से रूबरू हैं और इसे कोई भी नहीं समझ पा रहा। मान्यताओं को खंडित करने में यदि किसी को नोबल मिलना चाहिए तो वे हैं भारतवर्ष के नागरिक।  ऐसा नहीं है कि भारत वर्ष में सब बुरा ही बुरा रहा है।  इस महान गीत को सुनते हुए यह ब्लॉग लिख रहा हूँ और मुझे पूरी तरह से एहसास है कि भारत महान था और बन भी सकता है।  जरूरत है तो बस उस इमानदारी की जिसके कारण भारत वर्ष के प्रधानमन्त्री (चाणक्य) एक झोंपड़ी में रह कर स्वयं के तेल से अपने मेहमानों के साथ चर्चा करते थे।  ऐसा सोचना ही बेमानी है कि हम बिलकुल सही थे; पर आवश्यकता है हमें अपने अन्दर उस इमानदारी को विकसित करने का जिस इमानदारी में हम अपनी गलती को स्वीकार कर उसे सही करने का प्रयास करें।

भगवान् करे ये और फले; बढ़ता ही रहे और फूले फले। मेरे जैसे इंसान रहें या न रहे इस राष्ट्र की श्रेष्टता के लिए लोग आगे आते रहेंगे और कोई छोटा सा ही सही पर प्रयास करते रहेंगे। इन प्रयासों से ही हम अपने शीर्ष गौरव को प्राप्त कर पायेंगे।

ज्यादा लिख नहीं पाऊंगा। शुभ रात्रि ; जय हिन्द।

Saturday, August 17, 2013

जियो जियो अय हिंदुस्तान- श्री रामधारी सिंह दिनकर

जाग रहे हम वीर जवान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !
हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल,
हम नवीन भारत के सैनिक, धीर,वीर,गंभीर, अचल ।
हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं ।
हम हैं शान्तिदूत धरणी के, छाँह सभी को देते हैं।
वीर-प्रसू माँ की आँखों के हम नवीन उजियाले हैं
गंगा, यमुना, हिन्द महासागर के हम रखवाले हैं।
तन मन धन तुम पर कुर्बान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !

 

हम सपूत उनके जो नर थे अनल और मधु मिश्रण,
जिसमें नर का तेज प्रखर था, भीतर था नारी का मन !
एक नयन संजीवन जिनका, एक नयन था हालाहल,
जितना कठिन खड्ग था कर में उतना ही अंतर कोमल।
थर-थर तीनों लोक काँपते थे जिनकी ललकारों पर,
स्वर्ग नाचता था रण में जिनकी पवित्र तलवारों पर
हम उन वीरों की सन्तान ,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !

 

हम शकारि विक्रमादित्य हैं अरिदल को दलनेवाले,
रण में ज़मीं नहीं, दुश्मन की लाशों पर चलनेंवाले।
हम अर्जुन, हम भीम, शान्ति के लिये जगत में जीते हैं
मगर, शत्रु हठ करे अगर तो, लहू वक्ष का पीते हैं।
हम हैं शिवा-प्रताप रोटियाँ भले घास की खाएंगे,
मगर, किसी ज़ुल्मी के आगे मस्तक नहीं झुकायेंगे।
देंगे जान , नहीं ईमान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान।

 

जियो, जियो अय देश! कि पहरे पर ही जगे हुए हैं हम।
वन, पर्वत, हर तरफ़ चौकसी में ही लगे हुए हैं हम।
हिन्द-सिन्धु की कसम, कौन इस पर जहाज ला सकता ।
सरहद के भीतर कोई दुश्मन कैसे आ सकता है ?
पर की हम कुछ नहीं चाहते, अपनी किन्तु बचायेंगे,
जिसकी उँगली उठी उसे हम यमपुर को पहुँचायेंगे।
हम प्रहरी यमराज समान
जियो जियो अय हिन्दुस्तान!

Friday, August 16, 2013

धर्म समन्वय के ऊपर स्वामी विवेकानंद जी के कुछ विचार

 "संसार के लिए यह बड़े ही दुर्भाग्य की  बात होगी यदि सभी मनुष्य एक ही धर्म, उपासना की एक ही पद्यति और नैतिकता के एक ही आदर्श को स्वीकार कर लें।  इससे सभी धार्मिक और आद्यात्मिक उन्नति को मृत्यु जैसा आघात पंहुचेगा।  "

दूसरे धर्म या मत के लिए हमें केवल सहनशीलता नहीं दिखानी है; बल्कि प्रत्यक्ष रूप से उन्हें स्वीकार करना होगा; और यही सत्य सब धर्मों की नींव है। "

"साधुता, पवित्रता और सेवा किसी सम्प्रदाय विशेष की संपत्ति नहीं है; और प्रत्येक धर्म ने श्रेष्ट तथा अतिशय उन्नत चरित्र के नर-नारियों को जन्म दिया है।  इन प्रत्यक्ष प्रमाणों के बावजूद भी यदि कोई ऐसा स्वप्न देखे कि अन्य सारे धर्म नष्ट हो जाएँ और केवल उसी का धर्म जीवित रहेगा, तो मैं अपने हृदय के अन्तस्तल से उस पर दया करता हूँ और उसे स्पष्ट बता देना चाहता हूँ कि सारे प्रतिरोधों के बावजूद, शीघ्र ही प्रत्येक धर्म की पताका पर यह लिखा होगा-संघर्ष नहीं सहयोग; पर भाव-विनाश नहीं पर भाव ग्रहण, मतभेद और कलह नहीं, समन्वय और शान्ति। "

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कल कुछ और विचार प्रस्तुत करूंगा।

Tuesday, August 13, 2013

विडम्बना

यतो धर्मस्ततो जयः, अर्थात जहाँ धर्म है वहां जय है। हिन्दू धर्म का यह महान सन्देश कहीं गुम हो गया लगता है।  आज गोस्वामी तुलसीदास जी की जयंती है, उन्होंने अपने महान काव्य में कहा था," परहित सरसी धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई" अर्थात दूसरे के हित से बड़ा धर्म नहीं है एवं दूसरे को पीड़ा देने से अधिक अधर्म का कोई कार्य नहीं है।  जब मैं भारतवर्ष के पिछले तीस  देखता हूँ तो वह सम्पूर्ण रूप से अधर्म से भरे हैं।  किसी भी धर्म ने अन्य धर्म को पीड़ा देने से गुरेज नहीं किया; हालांकि यह अवश्य सत्य है कि बहुसंख्यकों ने अल्पसंख्यकों का अधिकतर जगह पर ध्यान रखा है (एक दो अपवादों को छोड़ कर ) पर फिर भी भारतवर्ष ने अपने एक विशेष चरित्र की हत्या कर दी है; वह है हर स्थिति एवं हर परिस्थिति में अपने धर्म का पालन। अधर्म ने यहाँ इस हद तक घर कर लिया है कि सभी मन्त्र, श्लोक, मान्यताएं एवं दोहे फेल हो गए लगते हैं।  चाहे साम्प्रदायिकता हो या धर्मनिरपेक्षता हो; हर जगह हम दोहरा चरित्र रखते हैं।