Friday, August 17, 2012

जज्वये-शहीद-राम प्रसाद बिस्मिल

हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर,
हमको भी पाला था माँ-बाप ने दुःख सह-सह कर ,
वक्ते-रुख्सत उन्हें इतना भी न आये कह कर,
गोद में अश्क जो टपकें कभी रुख से बह कर ,
तिफ्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने को !

अपनी किस्मत में अजल ही से सितम रक्खा था,
रंज रक्खा था मेहन रक्खी थी गम रक्खा था ,
किसको परवाह थी और किसमें ये दम रक्खा था,
हमने जब वादी-ए-ग़ुरबत में क़दम रक्खा था ,
दूर तक याद-ए-वतन आई थी समझाने को !

अपना कुछ गम नहीं लेकिन ए ख़याल आता है,
मादरे-हिन्द पे कब तक ये जवाल आता है ,
कौमी-आज़ादी का कब हिन्द पे साल आता है,
कौम अपनी पे तो रह-रह के मलाल आता है ,
मुन्तजिर रहते हैं हम खाक में मिल जाने को  !

नौजवानों! जो तबीयत में तुम्हारी खटके,
याद कर लेना कभी हमको भी भूले भटके ,
आपके अज्वे-वदन होवें जुदा कट-कट के,
और सद-चाक हो माता का कलेजा फटके ,
पर न माथे पे शिकन आये कसम खाने को !

एक परवाने का बहता है लहू नस-नस में,
अब तो खा बैठे हैं चित्तौड़ के गढ़ की कसमें ,
सरफ़रोशी की अदा होती हैं यूँ ही रस्में,
भाई खंजर से गले मिलते हैं सब आपस में ,
बहने तैयार चिताओं से लिपट जाने को !

सर फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं,
पास जो कुछ है वो माता की नजर करते हैं ,
खाना वीरान कहाँ देखिये घर करते हैं!
खुश रहो अहले-वतन! हम तो सफ़र करते हैं ,
जा के आबाद करेंगे किसी वीराने को !

नौजवानो ! यही मौका है उठो खुल खेलो,
खिदमते-कौम में जो आये वला सब झेलो ,
देश के वास्ते सब अपनी जबानी दे दो ,
फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएँ ले लो ,
देखें कौन आता है ये फ़र्ज़ बजा लाने को ?

एक बेरोजगार

आज मानव सड़क पर चला जा रहा था। उसके मन में कई तरह की गुत्थियां चल रही थीं।नौकरी मिल नहीं रही थी, ऊपर से माँ उसकी चिंता में मरी जा रही थी। मानव के तीन भाइयों में वह ही ऐसा था जिसके पास नौकरी नहीं थी, इसलिए उसे घर में कोई बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती थी। पिता जी कुछ चाय बनाने की दुकान  के सहारे काम चला रहे थे।

सड़क पर चलते हजारों हजारों लोगों को देखते हुए उसने सोचा,"मेरे जैसे भी बहुत होंगे इनमें", ऊपर वाला अगर पेट भरने के लिए कुछ नहीं देता तो इस दुनिया में क्यों लेके आता है? "मेरे बस में हों तो मैं तो इस दुनिया को छोड़ दूं और फिर ऊपर वाले से पूछूँगा, गरीब की जिंदगी इतनी सस्ती क्यों है? सरकार को भी देखो, अगर कोई गरीब बम्ब विस्फोट में मर जाए तो जीवन की कीमत है एक लाख। अरे इस से ज्यादा तो एक बाबू रिश्वत दे देता है सौ रुपये की रिश्वत लेते पकडे जाने पर। मेरी जिंदगी की कोई कीमत नहीं है।"

तभी एक मोड़ पर एक धमाका हुआ और मानव की जीवन लीला समाप्त हो गयी। एक घंटे में घोषणा हुई, सरकार मृत लोगों को एक लाख और घायलों को पच्चीस हजार मुआवजा दे रही है। धमाके की जांच होगी और दोषियों को बक्शा नहीं जाएगा। -रविन्द्र सिंह/17 अगस्त 2012.

Thursday, August 16, 2012

पश्चाताप

शहर में चारों और दंगे हो रहे थे और तबाही मची थी, तभी एक छोटी सी कुटिया के पास आकर भीड़ रुकी. मुस्लिम लोगों की भीड़ थी वह; उस भीड़ ने आवाज लगाईं, "जो कोई भी है बाहर निकले, अपना मजहब बताये वरना हम कुटिया को जला देंगे". एक अधेड़ उम्र की बुढ़िया बाहर आई, एक प्रश्न चिह्न लगाते हुए भीड़ के नेता की तरफ देखा,"क्यों रे, तू तो वही है जो  यहाँ कपडे सिलवाने आता था, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है." 
युवक:," तू ये बता तेरा मजहब क्या है, वरना हम जला देंगे."
बुढ़िया::" मेरा सवाल अब भी अधूरा है, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है."
युवक:" तू ऐसे नहीं मानेगी, तेरा इलाज करना पड़ेगा."
बुढ़िया:"मैं अन्दर सोमवार की पूजा कर रही थी, अब तुने जो समझना है समझ ले."
युवक:" जला दो, इस झोंपड़ी को, मार दो बुढ़िया को."

और उस बुढ़िया को भीड़ ने मार दिया..भीड़ अन्दर घुसी, अन्दर एक चिट्ठी रखी थी. उस चिट्ठी में लिखा था," मेरे बेटो, मेरा अल्लाह जानता है, कि मैंने सदा ऊपर वाले के ऊपर विश्वास किया है और उसकी सच्ची इबादत की है. मैं चाहती तो बता सकती थी कि मैं मुसलमान हूँ पर आज मुझे बड़ा दुःख है कि मेरी जैसी माओं ने तुम जैसे बच्चों को जन्म दिया है. इस बात का पश्चाताप करने के लिए मैं अल्लाह-ताला के पास जा रही हूँ. खुदा तुम्हें इबादत सिखाये और बस इतना करे कि तुम जैसे बच्चे मेरे जैसी माओं की कोख से पैदा न हों ..खुदा हाफ़िज़"
भीड़ अवाक एक दूसरे को देखती रही, फिर सन्नाटा पसर गया..
-रविन्द्र सिंह/१६ अगस्त २०१२ 

तय करो किस ओर हो तुम / बल्ली सिंह चीमा

तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो ।।

ख़ुद को पसीने में भिगोना ही नहीं है ज़िन्दगी,
रेंग कर मर-मर कर जीना ही नहीं है ज़िन्दगी,

कुछ करो कि ज़िन्दगी की डोर न कमज़ोर हो ।
तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।।

खोलो आँखें फँस न जाना तुम सुनहरे जाल में,
भेड़िए भी घूमते हैं आदमी की खाल में,
ज़िन्दगी का गीत हो या मौत का कोई शोर हो ।
तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।।

सूट और लंगोटियों के बीच युद्ध होगा ज़रूर,
झोपड़ों और कोठियों के बीच युद्ध होगा ज़रूर,
इससे पहले युद्ध शुरू हो, तय करो किस ओर हो ।
तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।।

तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो ।।

Wednesday, August 15, 2012

आजादी की छुट्टी।

आजादी की छुट्टी पर एक छोटा बच्चा अपनी माँ से पूछ बैठा, "माँ, ये छुट्टी क्यों होती है" माँ परेशान रहती हुई कोई जवाब न दे पायी. इतने में बच्चे ने फिर से पूछा, "माँ जवाब क्यों नहीं देती?" माँ ने सोचा फिर जवाब दिया,"बेटा क्योंकि आज के दिन हमें गुलामी से आजादी मिली थी, इस से पहले हमारे लोग अपनी मर्जी से इस देश में घूम नहीं पाते थे, खा नहीं पाते थे, पढ़ नहीं पाते थे. सरकार विरोध करने वालों को बड़ी सजा देती थी, कभी भी लोगों को बेवजह जेल में डाल देती थी. आजाद होने की ख़ुशी में सरकार हर साल छुट्टी करती है." 
 
बेटे ने कहा," तो माँ अभी भी तो पास वाले अंकल को पुलिस ऐसे ही उठा ले गयी और मेरा दोस्त बता रहा था कि उसको पीटती भी है...बताओ माँ बताओ फिर क्यों छुट्टी होती है."

माँ एक टक आसमान में देखती रही और वह अपने दोस्तों के साथ खेलने चला गया.-रविन्द्र सिंह/15 अगस्त 2012



उस नदी के दो किनारे...


इस किनारे चलते हुए चुन्नी  लाल  ने  बहती नदिया के पार देखा. इस किनारे बड़े बंगले थे, बड़े बाजार थे, उन बाजारों में केवल कुछ हजार लोग थे। वे लोग ऐसे थे जो चलते थे, उड़ते थे, कभी कभी तो कर्म ऐसा करते थे, जिन कर्मों में कोई धर्म नहीं, जिन आदमियों में कोई सच्चा कर्म नहीं,पर उनका उड़ना कभी कम नहीं हुआ, उनका चलना कभी कम नहीं हुआ. इतने में चुन्नी लाल ने नदिया के उस पार देखा। उस पार कुछ भूखे नंगे लोग चल रहे थे, हाथ में सूखी रोटी थामे, गले में पानी के अरमान पाले, न बंगले दिखे, न बाजार दिखे, पर उसे भूखे आदमी कई हजार दिखे,सभी और प्रश्न थे और सभी इस पार देख रहे थे. उस पार लोग इस पार आने का रास्ता ढूंढ रहे थे। बीच में एक छोटा सा कमजोर पुल बन रहा था, पुल ऐसा कि दोनों किनारों को जोड़ता नहीं था, पर काम उसका पुलिया का ही था। इस पार लोग उस पार के लोगों के बारे में भाषण दे रहे थे, उनके लिए काम करने का दावा कर रहे थे। 


व्यथित चुन्नी लाल आगे चल पड़े, आगे चला तो दोनों का नाम दिखा,नदिया का नाम "लोकतंत्र" और पुलिया का नाम "सरकार" था। तभी दोनों छोर कभी मिलते नहीं थे, इस पार के लोग कभी उस पार जाते नहीं थे, उस पार के लोगों को पुलिया इस पार आने नहीं देती थी। नदिया के ये दोनों छोर  न कभी मिले थे, और न कभी मिलेंगे।-रविन्द्र  सिंह/ 15 अगस्त 2012. 

Tuesday, August 14, 2012

एक प्रश्न

जब भारत के अंतिम वायसराय को भारत में ब्रिटेन की लेबर गवर्नमेंट ने भेजा था तो उनके पास एक बहुत मुश्किल लक्ष्य था और वह था भारत को आजाद करना और भारत का होने वाला बंटवारा. हालांकि बड़े बड़े विद्वान् इस बात के पूरी तरह से खिलाफ थे. उनमें से एक थे सर जान स्ट्रेची. उनके हिसाब से भारत में धर्म, मजहब, जाति, भाषा और वेशभूषा की विविधता बहुत अधिक थी और भारत का एक आजाद राष्ट्र के रूप में एक होना असंभव था. वे अक्सर कहा करते थे कि अतीत में भारत में राष्ट्र नाम की कोई चीज नहीं थी और न ही ऐसा होने की भविष्य में कोई संभावना है. उनके अनुसार बंगाली, पंजाबी और तमिल एक दूसरे के साथ एक राष्ट्र का नागरिक होना और एक होना महसूस कर सकेंगे उस बात की कोई संभावना नहीं है. रुडयार्ड किपलिंग के अनुसार भारत के लोग चार हजार साल पुराने हैं, वे इतने पुराने हैं कि वे शासन चलाना सीख ही नहीं सकते. उन्हें कानून और व्यवस्था चाहिए, वह ब्रिटेन दे ही रहा है तो भारत को आजाद क्यों किया जाए? पर आज भारत को आजाद हुए सत्तर साल के आस पास हो गए और दुनिया जानती है कि यह मुल्क चल रहा है. तो फिर विभाजन क्यों हुआ? क्या भारत और पाकिस्तान के लिए पंद्रह अगस्त सही मायने में वह आजादी थी जो वे हमेशा से चाहते थे? ये सवाल कितने सालों से घूम रहे हैं और कोई भी इसका जवाब नहीं दे पा रहा है. सभी इतिहासकार और लेखक इस बारे में मतभेद रखते हैं. भारत की आजादी के दस्तावेज बेशक से प्रमाणिक रूप से मौजूद हों पर अधिकांश भारतवासी इसके बारे में नहीं जानते. जिन्ना के दिमाग की उपज थी यह आजादी या इकबाल के दिमाग की; कोई नहीं जानता. 

गाँधी जी भारत को कभी भी बंटते नहीं देखना चाहते थे तो फिर बंटवारा क्यों हुआ? आज तक भारत का एक वर्ग इस बंटवारे के लिए गाँधी जी को ही जिम्मेदार मानता है. आठ जून, ४७ को माउन्टबेटन ने ब्रिटेन की महारानी को एक पत्र लिखा जिसमें वे लिखते हैं कि जैसे ही गाँधी जी को पता लगा कि ब्रिटेन भारत का विभाजन होगा वे बेहद विचलित हो गए. इतने विचलित उन्हें किसी ने भी नहीं देखा था. उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि भारत का बंटवारा उनकी लाश पर से होगा. पर कांग्रेस और मुस्लिम लीग कि राजनीति और ब्रिटेन का निहित स्वार्थ ऐसा भयानक था कि भारत का विभाजन भी हुआ और विश्व के इतिहास का सबसे बड़ा पलायन भी हुआ. लाखों लोग इधर उधर हुए, लाखों को मार गिराया गया. इस बंटवारे ने इंसान को हैवान बना दिया तो क्यूँ आज का दिन इतना ख़ुशी का है? जिस देश के बंटवारे को रोकने के लिए गाँधी जी कांग्रेस की सदस्यता तक छोड़ने का मन बना चुके थे, जिस गाँधी के बिना कांग्रेस में पत्ता तक नहीं हिलता वह कांग्रेस गोलमेज सम्मलेन में ब्रिटेन के साथ बैठती है और गाँधी जी को बुलाया भी नहीं जाता. भारत के विभाजन के लिए जिस शिमला में जिस समझौते का हस्ताक्षर हुआ था उस समझौते के समय गाँधी जी नाराजगी के कारण वहां गए भी नहीं. आजादी के बाद भी उन्होंने आस नहीं छोड़ी कि भारत फिर से एक हो सकता है. इसके लिए उन्होंने बंटवारे की शर्तों के अनुसार पाकिस्तान को कुछ ५५ करोड़ देने की मांग रखी और उसके बाद दिल्ली से कराची तक पैदल यात्रा की घोषणा की पर उसके बाद क्या हुआ वह इतिहास जानता है. कुछ तथाकथित हिन्दू राष्ट्र की मांग रखने वाले राष्ट्रभक्तों ने उनकी हत्या की साजिश की और नाथू राम ने उनकी हत्या कर दी. 

विश्व के सबसे बड़े पलायन में हिंदुस्तान छोड़ कर गए मुस्लिमों ने यहाँ कुछ उन्नीस लाख एकड़ जमीन छोड़ी और पाकिस्तान से आये हिन्दू वहां कुछ सत्ताईस लाख एकड़ जमीन छोड़ कर आये. भारत में आये हिन्दुओं को रिफ्यूजी और पाकिस्तान में गए मुस्लिमों को वहां मुहाजिर कह कर पुकारा जाता है. आखिर क्यों? तथाकथित हिन्दू राष्ट्र की मांग करने वाले कुछ नेता उन्हें बराबर का दर्जा क्यों नहीं देते. क्या पाकिस्तान उनके अखंड भारत के नक़्शे पर नहीं है? क्या पाकिस्तान से आये हिन्दू किसी मायने में कम हैं? विभाजन से ठीक पहले गाँधी जी ने बंगाल का रूख किया. बंगाल एक साल से हिंसा में जल रहा था. जो बंगाल १९०५ में अंग्रेजों की लाख कोशिश के बावजूद भी अलग नहीं हुआ उसे अंग्रेजों ने बेरहमी से अलग कर दिया. बंगाल के मुसलमान जो दुर्गा पूजा में हिन्दुओं के बराबर हिस्सा लेते थे और रीति रिवाजों में पूरी तरह से एक समान थे वे इतनी बुरी तरह लड़ रहे थे; इस से गाँधी जी व्यथित थे. नोआखली में उनकी पैदल यात्रा और उनके अनशन ने ऐसा जादू किया कि दो दिन में बंगाल की हिंसा रुक गयी. यूनियनिस्ट पार्टी के बैनर तले पंजाब भी बंटवारे से पहले पूरी तरह से संगठित था. इस पार्टी के नेता श्री छोटू राम को हिन्दू बहुल क्षेत्र में छोटू राम और मुस्लिम बहुल क्षेत्र में छोटू खान के नाम से जाना जाता था. जहाँ पूरे जोर लगाने के बावजूद भी मुस्लिम लीग चुनाव नहीं जीत पायी थी, वहां लोग एक दूसरे के खून के प्यासे क्यों हो गए? ये बड़े सवाल हैं जिनका उत्तर आज के दिन हम सब को सोचना होगा. यह आजादी बड़े जतन के बाद आई थी; इसकी कीमत हमारे पूर्वजों ने चुकाई थी हमने नहीं. `

इस बंटवारे से व्यथित होकर फैज अहमद फैज ने एक ग़ज़ल लिखी थी उसका छोटा सा भाग यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ, इसे पढ़ें और सोचे कि हम कहाँ से चले थे, कहाँ रुके हैं और कहाँ जाना है:
"ये दाग दाग उजाला, ये शब-गजीदा सहर,
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं

ये वो सहर तो नहीं जिस की आरजू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों कि आखरी मंजिल
xx xx xx xx xx 
अभी गरानी-ऐ-शब में कमी नहीं आई
नजात-ऐ-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो की वो मंजिल अभी नहीं आई "

यह धरा बहुत पवित्र है. इसे पवित्र रखना हर भारत वासी का कर्तव्य है. भारत कभी भी एक धर्म या एक जाति को नहीं मान सकता. हम पंथनिरपेक्ष हैं, हम एक बहुत गौरवशाली इतिहास समेटे हुए हैं. जरूरत है तो उस इतिहास को सही मायनों में पढने की और अपनी आजादी के नायकों की इज्जत करने की. सोचिये हम क्यों अपने आप को इतना महान बताते हैं जब हमारे हाथ भी रक्त रंजित हैं. क्या हम अपने इतिहास को जानते हैं? भारत के स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर मैं ये प्रश्न हम सब के लिए छोड़ रहा हूँ और इस लेख को बिना किसी अंतिम निर्णय के बंद कर रहा हूँ. यह प्रश्न है, उत्तर नहीं. तो निर्णय हम सबके हाथ में है, केवल मेरे हाथ में नहीं.

Monday, August 13, 2012

रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 3


मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।
‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंग!
दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जन नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।
‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, कहाँ इसमें तू है।
‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।
‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?
‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।
‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होग।
‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!

क्रांति का अर्थ

क्रांति का अर्थ:
क्रांति का आज कल हर जगह मजाक उड़ाया जा रहा है.कभी ये आन्दोलन तो कभी वो आन्दोलन, लगता है जैसे भारतवर्ष में आंदोलनों की बहार आ गयी है.पंद्रह अगस्त क्या आई रामदेव जी ने अगस्त क्रांति का ऐलान कर दिया. कुछ ही दिन बीते थे जब अन्ना हजारे जी एक क्रांति का नेतृत्व कर रहे थे....अब ज़रा जन-मानस को कौन समझाए कि "अगस्त क्रांति" का भारत वर्ष में दूसरा उदाहरण कभी भी पैदा नहीं हो पायेगा. जमीर के बिना क्रांति संभव नहीं है...यदि हमारे विचार पवित्र हैं तो हम अवश्य एक ऐसी क्रांति ला पायेंगे जो समाज को कुछ हद तक बदलने में सहायक हो. पर तब तक हमें प्रयास अवश्य करने होंगे. अब ज़रा क्रांति के नायकों के बारे में बात कर ली जाए. एक बात पूरी तरह से सही है कि क्रांति कभी भी कोई नायक पैदा नहीं कर सकता. इसका उल्टा बिल्कुल सही है, क्रांति हमेशा से नायक पैदा करती रही है...जनता जब व्यवस्था परिवर्तन के लिए उठ खड़ी होती है तो नायक अपने आप मिल जाते हैं. भारत में यह हमेशा एक प्रश्न जनमानस में कोंधता रहता है कि क्या भारत वर्ष को गाँधी जी ने आजादी दिलवाई थी? इसके लिए हमें गाँधी जी को समझना होगा. उन कारणों को समझना होगा जो गाँधी जी को वह बना गए जो वे आज हैं. एक सीधी साधी वकालत करने वाला और सफल बैरिस्टर किस लिए लंगोट पहन कर इतिहास बनाने कूद पडा. इसका उत्तर आपको दक्षिण अफ्रीका में उस समय उठ रहे विद्रोह में मिलेगा जिसका शांति पूर्वक नेतृत्व करके गाँधी जी भारत में एक नायक के रूप में प्रथम विश्वयुद्ध के समय जाने गए. भारत में उसका उत्तर आपको उनके राजनैतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले और उस समय के सैंकड़ों बड़े नेताओं में मिलेगा जिनकी विचारधारा नें गाँधी जी को एक धोती में आने में मजबूर किया. क्या गाँधी जी ने अफ्रीका में विद्रोह पैदा किया या अफ्रीका में विद्रोह से गांधी जी पैदा हुए? क्रान्ति के नायक का उत्तर आपको यहाँ मिलेगा. आज के समय में जनमानस उबल पड़ने का बहाना ढूंढ रहा है. व्यवस्था परिवर्तन के लिए आवाज उठाने वाले हर एक नेता के साथ लाखों लोग खड़े हो जाते हैं. फिर वे नायक घमंड में चूर अपने आपको उस क्रांति का जनक मान लेते हैं जिसको पैदा करने की ताकत एक व्यक्ति में कभी भी नहीं हो सकती. हाँ ये हो सकता है कि वह व्यक्ति अपनी विचार धारा से क्रांति की दिशा को तय कर दे या उस व्यक्ति के द्वारा दिखाए गए रास्ते पर जनमानस को सफलता मिले. जय प्रकाश नारायण के आन्दोलन के समय राष्ट्र कवि दिनकर की कविता"सिंहासन खाली करो कि जनता आती है" क्रांति के सही स्वरुप को दर्शाती है. आवश्यक नहीं कि मैं अपने विरोध को केवल एक रूप में प्रकट करूँ..किसी भी क्रांति में इतनी ताकत अवश्य होती है कि वह सभी विचारधाओं को समाहित करले. गांधी जी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने भगत सिंह या चन्द्र शेखर आजाद! तो फिर क्रांति का केवल एक नायक कैसे हुआ? अठारह सो सत्तावन के विद्रोह को झांसी वाली रानी कि बहादुरी के लिए याद रखा जाता है, क्या उस क्रांति में मंगल पण्डे, तात्यां टोपे, नाना साहिब या उनके जैसे हजारों नायकों का कोई योगदान नहीं था. उस क्रांति ने वे सब नायक पैदा किये थे. 
एक पुराना दोहा है जो क्रांति के नायक को परिभाषित करता है " शूरा सो पह्चनिए, जो लडे दीन के हेत. पुर्जा पुर्जा कट मरे, कबहूँ ना छाडे खेत ". क्या ऐसा शूरवीर केवल एक या दो होते हैं. क्या भगत सिंह को याद करते हुए हम दुर्गा भाभी को भूल जाते हैं या ग़दर पार्टी के नायक करतार सिंह सराभा को भूल जाते हैं. क्या हम पटेल को समझे बिना गाँधी को समझ पायेंगे. क्या इतिहास इस बात का गवाह नहीं है कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के द्वारा उठाया गया छोटा सा कदम जो शायद भारत को आजाद करवाने में भले ही कारागार न साबित हुआ हो, वह कदम इतना महान था कि नेताजी के नाम पर आज भी हजारों लाखों युवा जीने मरने की कसमें खाते हैं. क्रांति के नायक का केवल एक ही धर्म है कि वह अपने स्वार्थ के लिए नहीं राष्ट्र हित में लड़े फिर चाहे उसे सफलता मिले या असफलता, क्रांति असफल नहीं होती.यही ऊपर के दोहे का सार है. क्या आज के हमारे तथाकथित नायक इस परिभाषा में सटीक बैठते हैं? दिनकर की एक और महान रचना के कुछ शब्द उदृत करना चाहूँगा "चिटकाई जिनमें चिंगारी,जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर-लिए बिना गर्दन का मोल। कलम, आज उनकी जय बोल" ये है क्रांति और ये हैं क्रांति के नायक.
क्रांति कभी असफल नहीं होती, जब तक कि वह अपने अंजाम तक न पंहुच पाए. यदि असफल हुई तो वह क्रांति नहीं हो सकती. रूस के शब्दों में कहें "Long Live Revolution" यानी "इन्कलाब जिंदाबाद". किसी भी व्यक्ति विशेष से ऊपर राष्ट्रप्रेम से भरपूर क्रांति के अर्थ को छोटा होते देख कर दुःख होता है. 
पर क्या भारत सीखेगा? क्या इसके नागरिक सीखेंगे यह बात कि मतभेद होना कभी भी क्रांति को कमजोर नहीं करता अपितु उसे सही दिशा देता है क्योंकि कमी पकड़ में आती है.या क्रांति अभी नहीं आई है, ज़रा सोचिये! 
माँ भारती आपके मार्ग को प्रशस्त करे. जय हिंद!