Tuesday, November 27, 2012

भारत की सीमाएं


एक बेहद सुन्दर ब्लॉग से मुझे आज चाणक्य सीरियल का चन्द्रगुप्त मौर्या द्वारा दिया गया वह भाषण मिला जो उन्होंने अपने राज्याभिषेक पर दिया था। इसे पढ़ें और आज की स्थिति के अनुसार इसके बारे में सोचें, मैं इसको लिखित रूप में प्रस्तुत करने के लिए इस ब्लॉग के लेखक का आभारी हूँ:-

ब्लॉग का एड्रेस है:"http://kalchiron.blogspot.in"

अरट्ट के कुलमुख्यों और वाहिक प्रदेश के विभिन्न गणराज्यों से आये गणमुख्यों का मैं स्वागत करता हूँ. आज वाहिक प्रदेश के अधिकांश जनपद यवनों की दासता से मुक्त हो गए हैं, और शीघ्रही अन्य जनपद भी मुक्त होंगे. अरट्ट जनपद ने अपने प्रशासन का उत्तरदायित्व मेरे कंधो पर डाला हैं, जिसे मैं सहर्ष स्वीकार करता हूँ.

परन्तु वास्तव में जनपदों को शासकों की अपेक्षा एक प्रणाली की आवश्यकता हैं. एक ऐसी प्रणाली जो जनपदीय मानसिकता की संकीर्ण राजनीती से ऊपर उठकर संपूर्ण राष्ट्र को एक परिवार, एक जनपद के रूप में देखेगी, क्योंकि जनपद राष्ट्र का उसी प्रकार अविभाज्य अंग होता हैं. तो विभिन्न जनपद अपने अस्तित्व के लिया संघर्षरत क्यों हैं आपस में? क्या अपने परिवार की किसी पीड़ित सदस्य को देखकर आप पीड़ित नहीं होते? क्या अपने परिवार की किसी अभावग्रस्त सदस्य के अभाव को पूर्ण करने का प्रयत्न नहीं करते? अपने परिवार के किसी सदस्य के सुख-दुःख में आप तठस्थ कैसे रह सकते हैं?

समाज के लिए व्यक्ति का त्याग हमारी परंपरा हैं. किसलिए शिव ने विषपान किया था? किसलिए महर्षि दधिची ने अपनी अस्थियों का दान दिया था? तो आज समाज के लिए व्यक्ति और राष्ट्र के लिए समाज त्याग करने के लिए तत्पर क्यों नहीं हैं? क्यों एक समाज को ये आभास होता हैं की वह दुसरे समाज का विनाश करके ही विकसित और पल्लवित हो सकता हैं? क्यों एक जनपद को भ्रम हैं की दुसरे जनपद का उत्कर्ष उसकी प्रगति में बाधक हैं? क्यों एक व्यक्ति को ये आभास होता है की जीवन के लिया वह दुसरे व्यक्ति से संघर्षरत हैं? क्या बीज पर्ण से संघर्षरत हैं? क्या जड़ें उसपर खड़े वृक्ष से संघर्षरत हैं? तो हम सब संघर्षरत क्यों हैं आपस में? क्या तुम्हे नहीं लगता की पर्ण, जड़, तना, शाखा सब में बीज का रूप विद्यमान हैं? पर फिर भी बीज दिखाई नहीं देता. हमारी राष्ट्रीयता भी इसी प्रकार दिखाई नहीं देती. किन्तु वह प्रत्येक भारतीय में विद्यमान हैं. यदि तुम बीज को खोजोगे तो तुम्हे अपने भीतर की राष्ट्रीयता का आभास होगा. और यदि राष्ट्रीयता का वह बीज हम सब में विद्यमान हैं, तो मैं तुमसे भिन्न कैसे हुआ?

तो क्या आवश्यकता की हमें यवनों से लड़ने की जबकि हम सब जानते हैं की इस पृथ्वी पर रहनेका अधिकार जितना हमें हैं, उतना उन्हें भी हैं. पर फिर भी हमने यवनों के शासन को अस्वीकार कर दिया. क्यों? हमने यवनों का शासन अस्वीकार किया क्योंकि हमें स्वतन्त्रता प्रिय हैं. पर क्या अर्थ हैं इस स्वतंत्रता का? क्या स्वतन्त्रता का अर्थ मात्र किसी शासन या व्यक्ति से मुक्ति हैं? क्या व्यक्ति की स्वतन्त्रता का अर्थ स्वेछा हैं? क्या व्यक्ति को समाज के बंधन स्वीकार नहीं करने पड़ते? क्या समाज को राष्ट्र के बंधन स्वीकार नहीं करने पड़ते? तो व्यक्ति को समाज और समाज को राष्ट्र के बंधन स्वीकार करने के पश्चात् भी क्यों ऐसा लगता हैं की वह स्वतंत्र हैं? क्या हैं वह "स्व" का बोध जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र में सामान्य हैं? क्या हैं वह तंत्र जिससे बंधने की पश्चात भी व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को स्वतन्त्रता का बोध होता हैं? किसने निर्माण किया हैं वह तंत्र जिसे आप सभी स्वेछा से स्वीकार करते हैं? क्या देती हैं वह स्वतन्त्रता जिसके लिए व्यक्ति स्वयं का उत्सर्ग करने के लिए तत्पर हो जाता हैं? क्या हैं वह तंत्र जिसे हम स्व-तंत्र कहते हैं? क्यों हम स्वातंत्र्य में जीना चाहते हैं और यवनों के पारतंत्र्य में नहीं? इस "स्व" और "पर" में क्या अंतर हैं? क्यों हम यवनों के उस तंत्र को स्वीकार नहीं कर पायें?

क्योंकि हमारी उस तंत्र में आस्था हैं जिसका निर्माण हमारे तत्वचिन्तकों और मनीषियों ने किया हैं. क्योंकि हमारी उन जीवनमूल्यों में आस्था हैं जिनका निर्माण हमारे स्वजनों ने किया और समष्टि के कल्याण की वह थाती विरासत में हमारे हाथों में आती गयी जिनका निर्वाह हमारी पूर्व-पीढियों ने किया. शाश्वत सत्य और ज्ञान के प्रकाश में जीवन के जिन मूल्यों का निर्माण हमारे ऋषियों ने किया वह हमारा स्वतंत्र हैं. उन्ही श्रेष्ठ जीवनमूल्यों के प्रकाश में हम हमारे सामाजिक व्यवस्था की प्रणाली निश्चित करते आये हैं. हमारे व्यक्तिगत, सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन का आधार हमारे अपने पूर्वजों का तंत्र ही हो सकता हैं. इसीलिए हम स्वतन्त्रता के आग्रही हैं.

परन्तु क्या वह प्रणाली, क्या वह पद्धति, क्या वह स्वतन्त्रता मालव और क्षुद्रक के लिए भिन्न हैं? क्या केकय और पांचाल के लिए भिन्न हैं? क्या श्रेष्ठ मूल्यों की उपासना भिन्न-भिन्न जनपदों के लिए भिन्न-भिन्न हो सकती हैं? जिन मूल्यों की निर्मिती हमारे पूर्वजों ने की हो वह भिन्न-भिन्न जनपदों के लिए भिन्न-भिन्न कैसे हो सकती हैं? परन्तु हम उस बीज को नहीं देख पा रहे हैं जो वृक्ष के सभी अंगों में विद्यमान हैं. हम संस्कृति के उस प्रवाह को नहीं देख पा रहे हैं जो प्रत्येक जनपद के जीवनधारा में अनुप्राणित हो रही हैं. जनपद उसी विशाल वृक्ष को शाखाएँ हैं, परन्तु हमारा बीज एक ही हैं. हम अपनी जड़ों को नहीं देख पा रहे हैं और बाहरी भिन्नता को देख अपने अन्तरंग की एकात्मता को नकार रहे हैं. अनेकता में एकता को नहीं देख पा रहे हैं. या, उसे जानभूझ कर नकार रहे हैं क्योंकि उसमे राजनीतिक स्वार्थ निहित हैं.

मैं जानता हूँ की कुछ जनपदों की राजनीतिक व्यवस्था में भिन्नता हैं. मगर राजनीतिक व्यवस्था संस्कृति नहीं हैं. राजनीतिक व्यवस्था संस्कृति की पूरक हो सकती हैं, संस्कृति का पर्याय नहीं. संस्कृति का प्रवाह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को समुत्कर्ष का मार्ग प्रर्दशित करता हैं, तो राजनीति का दायित्व भी व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का उत्कर्ष ही हैं. तो क्यों व्यक्ति व्यवस्था के नाम पर संघर्ष करता हैं? संभवतः इसलिए की वह व्यक्ति और समाज में समस्त हो नहीं देख पाता. अथवा इसलिए की उसका व्यक्तिगत स्वार्थ उसे संघर्ष करने के लिए प्रेरित कर रहा हैं. और इसी व्यक्तिगत स्वार्थ और एकात्मता के भाव के अभाव के कारण हमें यवनों के समक्ष अपना स्वाभिमान समर्पित करने के लिए विवश कर दिया था.

यवनों ने भिन्न-भिन्न जनपदों के आस्था के भेद को नहीं देखा था. आक्रान्ताओं ने सभी के साथ एक जैसा व्यवहार किया था. दुर्भाग्य ही था की सभी जनपदों ने मिलकर यवनों का सम्मिलित रूप से प्रतिकार नहीं किया. क्यों?? क्योंकि हममे राष्ट्रीय चरित्र का अभाव था. यदि सभी जनपदों ने राष्ट्र के रूप में संगठित होकर यवनों का प्रतिकार किया होता तो क्या यवनों के लिए इस धरा पर विजय पाना संभव था? यदि सिन्धु की रक्षा का दायित्व सभी जनपदों के लिया होता तो क्या यवनों को सिन्धु को पार कर पाना संभव था? पर कठ, मद्रक, क्षुद्रक और मालव गणराज्यों को ये विश्वास नहीं हो रहा था की उनके प्रदेशों की सीमाओं का द्वार भी तक्षशिला हैं.

जहाँ तक हमारी संस्कृति का विस्तार हैं, वहां तक हमारी सीमाए हैं. हिमालय से समुद्र पर्यंत ये संपूर्ण भूमि हमारी अपनी भूमि हैं, हमारा अपना राष्ट्र हैं. और इस राष्ट्र की रक्षा हम नहीं करेंगे तो इस राष्ट्र की रक्षा कौन करेगा. यदि हमने अबभी संगठित होकर राष्ट्र के रूप में अपना परिचय नहीं दिया तो आक्रान्ताओं का पुनरागमन हो सकता हैं और इतिहास की पुनरावृत्ति. यदि हम अबभी संगठित नहीं हुए तो आक्रान्ताओं का मार्ग प्रशस्त हैं. आवश्यकता हैं हमें एक छत्र के नीचे एकत्र होने की. ताकि ये राष्ट्र सुदृढ़ और सक्षम हो, शक्तिशाली हो, गौरवशाली हो, और हम अमृत के अमर्त्य पुत्र कह सकें की प्रशस्त पुण्य-पंथ हैं, बढे चलो बढे चलो..


पैगाम

गुरु नानक देव जी के जन्मदिन पर अल्लामा इकबाल जी के द्वारा लिखी गयी एक ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह ग़ज़ल उन्होंने गुरु नानक देव जी के लिए ही लिखी थी।

कौम ने पैग़ाम-ए-गौतम की ज़रा परवा न की
क़द्र पहचानी न अपने गौहर-ए-यक-दाना की

आह बदकिस्मत रहे, आवाज़-ए-हक़ से बेख़बर
ग़ाफ़िल अपने फल की शीरीनी से होता है शजर

आशकार उसने किया जो ज़िन्दगी का राज़ था
हिन्द को लेकिन खयाली फलसफे पे नाज़ था

शमा-ए-हक़ से जो मुनव्वर हो ये वोह महफ़िल न थी
बारिश-ए-रहमत हुई, लेकिन ज़मीं काबिल न थी

आह शूद्र के लिए हिंदोस्तां ग़मखाना है
दर्द-ए-इंसानी से इस बस्ती का दिल बेगाना है

बरहमन सरशार है अब तक मय-ए-पिन्दार में
शमा-ए-गौतम जल रही है महफ़िल-ए-अग्यार में

बुतकदा फिर बाद मुद्दत के मगर रोशन हुआ
नूर-ए-इब्राहीम से आज़र का घर रोशन हुआ

फिर उठी आखिर सदा तौहीद की पंजाब से 
हिन्द को एक मर्द-ए-कामिल* ने जगाया ख़्वाब से 


मर्द-ए-कामिल= महान इंसान


इस सुन्दर ग़ज़ल को मैंने एक बढ़िया ब्लॉग से प्राप्त किया है। आप सब को सतगुरु नानक देव जी के प्रकाशोत्सव पर बधाई।


Monday, November 26, 2012

धर्म

फेसबुक से कुछ समय के लिए छुट्टी ली है तो सोचा है कि कुछ अपने लिए लिखूं और कुछ पढूं। इस ही कड़ी में मैंने एक ब्लॉग पढ़ते हुए मनु स्मृति का एक श्लोक ढूँढा जो शायद मेरी कई दुविधाओं का हल हो सकता है। मैं हमेशा से इच्छुक रहा हूँ यह जानने का कि धर्म क्या है और क्यों इसे धर्म कहते हैं। एक श्लोक में धर्म क्या है इसका सार है, यह महत्त्वपूर्ण क्यों है यह जानने में बहुत समय चाहिए। अपनी सीमित सी बुद्धि से जो सोच पाऊंगा वह लिखूंगा।

धृतिः  क्षमा  दमोऽस्तेयं  शौचं  इन्द्रिय  निग्रहः ।
धीः  विद्या  सत्यमक्रोधो  दशकं  धर्म  लक्षणम् ।। 


धर्म का प्रथम लक्षण है धृति: अर्थात धैर्य। हर हाल में और हर परिस्थिति में धैर्य रखना धर्म का पहला लक्षण है। सुख दुःख, लाभ हानि, अच्छा और बुरा; हर अवस्था में धैर्य मनाये रखना किसी धार्मिक व्यक्ति का कार्य है।

धर्म का दूसरा लक्षण है क्षमा। हर प्राणी के ऊपर दया दृष्टि रखना।

धर्म का तीसरा लक्षण है दम अर्थात  दमन। अपनी इच्छाओं को और अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना दमन है।

धर्म का चौथा लक्षण है अस्तेय अर्थात दुसरे के धन के ऊपर नजर न रखना, चोरी न करना।

धर्म का पांचवां लक्षण है शौच अर्थात पवित्रता। अपने तन को पवित्र रखना भी एक धर्म का लक्षण है।

धर्म का छटा लक्षण है इन्द्री निग्रह। अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना धर्म का लक्षण है।

धर्म का सातवाँ लक्षण है धी अर्थात बुद्धि। बुद्धिमान व्यक्ति भले ही आस्तिक हो या नास्तिक धर्म के इस लक्षण पर खरा उतरता है।

धर्म का आठवां लक्षण है विद्या। यह किसी भी प्रकार की हो सकती है। बिना विद्या संसारमें कुछ प्राप्त नहीं हो सकता। यह लौकिक और अलौकिक दोनों हो सकती है।

धर्म का नौवां लक्षण है सत्य। सत्य अपने आप में इतना बड़ा और पवित्र है कि  किसी भी धर्म से ऊपर है। पर हम इसे अपने धर्म का भाग मानते हैं।

धर्म का दसवां और अंतिम लक्षण है अक्रोध। क्रोध किसी भी कार्य को बिगाड़ने की क्षमता रखता है अतः इसे अधर्म के साथ माना गया है।

इस अति पवित्र धर्म को आजकल कितना छोटा मान लिया गया है उसको हम सब देख सकते हैं।

गोस्वामी तुलसीदास एक जगह कहते हैं कि "परहित सरसी धर्म नहीं भाई" अर्थात किसी और की सेवा से ऊपर कोई भी धर्म नहीं है। इसे हम ग्यारहवां लक्षण मान सकते हैं।

कल चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।

रविन्द्र




Friday, November 16, 2012

ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल

दुष्यंत कुमार की पुस्तक "साए में धूप " एक अपाहिज समाज की व्यथा है जो भारत के आजाद होने के बाद इसके नेताओं ने इसे बना दिया है। एक ग़ज़ल नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ कृपया ध्यान से पढ़ें और सोचें:

ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल, लोगो 

-देखिये यहाँ पर दुष्यंत जी खोखले समाज की खोखली तरक्की पर करारा प्रहार कर रहे हैं और कह रहे हैं कि जो तरक्की की रौशनी भारतवर्ष में व्याप्त है ; वह एक धोखा है और जल में झलकते हुए महल की तरह है जो दीखता तो है पर असल में होता नहीं है और उसे महसूस भी नहीं कर सकते हैं। भारत वर्ष में गरीबी और भुखमरी आज भी व्याप्त है तो भारत के तरक्की करने का सवाल ही नहीं होता। जब तक निम्नतम वर्ग का नागरिक इस तरक्की का भागीदार न हो तब तक यह एक छल मात्र है।

दरख़्त हैं तो परिन्दे नज़र नहीं आते
जो मुस्तहक़ हैं वही हक़ से बेदख़ल, लोगो 

-पेड़ हैं तो उस पर परिंदे नहीं नजर आते, जो हकदार हैं वही हैं हक़ से बेदखल। दुष्यंत जी की व्यथा यहाँ और भी गंभीर हो जाती है और वे सीधे सीधे कहते हैं कि जिन परिंदों का दरख़्त कभी घर हुआ करता था; वे परिंदे अब नजर नहीं आते और जो हकदार हैं उन्हें हक़ से वंचित होना पद रहा है। किसान को और मजदूर को ले लीजिये।  किसान जो समूचे राष्ट्र को अन्न पैदा करके देता है; वह भूखा सोता है और मजदूर जिसकी मेहनत से एक इमारत खड़ी होती है वह बिना छत के सोता है। तरक्की यहाँ बेमानी है।

वो घर में मेज़ पे कोहनी टिकाये बैठी है
थमी हुई है वहीं उम्र आजकल ,लोगो 

किसी भी क़ौम की तारीख़ के उजाले में
तुम्हारे दिन हैं किसी रात की नकल ,लोगो 
-
देखिये यहाँ दुष्यंत जी की व्यथा, वे कह रहे हैं कि आपकी तरक्की तो किसी की तरक्की की नक़ल मात्र है।

तमाम रात रहा महव-ए-ख़्वाब दीवाना
किसी की नींद में पड़ता रहा ख़लल, लोगो 

-कोई तो तमाम रात स्वप्न में खोया रहा और कोई अपनी बेकारी के कारण सो ही नहीं पाया। हमारी तरक्की की मिसाल एक पूरी तरह से असमान समाज की संरचना है। जहाँ अमीर और अमीर हो रहा है वहीँ गरीब और गरीब हो रहा है। भारतवर्ष में व्याप्त यह सामाजिक ताना बाना कहीं से भी तरक्की की मिसाल कायम नहीं करता। 


ज़रूर वो भी किसी रास्ते से गुज़रे हैं
हर आदमी मुझे लगता है हम शकल, लोगो 

दिखे जो पाँव के ताज़ा निशान सहरा में
तो याद आए हैं तालाब के कँवल, लोगो 

वे कह रहे हैं ग़ज़लगो नहीं रहे शायर
मैं सुन रहा हूँ हर इक सिम्त से ग़ज़ल, लोगो।

-इन महान रचनाओं में भारत के समाज की सही रचना सामने आती है जो इस भारत से बिलकुल परे है जो सरकारें या मीडिया सच में हम सबको दिखाते हैं। 

Monday, November 12, 2012

नमस्कार

राम गइओ रावन गइओ, जाको बहु परिवार।
कहु नानक थिरु कुछ नहीं, सुपने जिऊँ संसार॥

एक बेहद सुन्दर साखी के साथ आप सब को प्रणाम। श्री गुरु तेग बहादुर के द्वारा रचित इस साखी में वे कहते हैं कि इस संसार से श्री राम भी चले गए, रावण भी चला गया, वे कहते हैं कि आपका कुछ नहीं है और यह संसार एक स्वप्न की तरह है। इस दीपावली के शुभ अवसर पर जब आधा भारत इस बात को सोचने में व्यस्त है कि श्री राम अच्छे पति थे या बुरे थे; ऐसे समय में जब भारत के राजनेता अपनी जुबान पर से पूरा नियंत्रण खो चुके हैं। त्योहारों को एक व्यापार बना दिया गया है; ऐसे समय में आइये हमारी जड़ों में चलें और ऐसे शब्द खोज कर लायें जो इस अँधेरे में रौशनी का एहसास करवाए और हमें इन व्यर्थ चिंताओं से और व्यर्थ दौड़ से मुक्त करवाए। यह दीपावली आप सब के परिवारों के लिए एक नयी रौशनी लेकर आये जिससे आपके अन्दर का अधकार मिटे; बाहर का नहीं। क्या हम  रावण के पैरों की धूल बनने के लायक भी हैं जो श्रीराम के चरित्र के बारे में बोलने के समर्थ हो गए हैं।माँ भारती आपका मार्ग प्रशस्त करे। जय हिन्द।