Saturday, February 11, 2012

भारत की आद्र्भूमियाँ(Wetlands) और भारत सरकार की विफलता.


2010 में जब भारत सरकार ने आद्र्भूमियों के संरक्षण और प्रबंधन के लिए नियम बनाए थे तो सबको आशा थी के जयराम रमेश के पर्यावरण मंत्री होने के नाते शायद सरकार कोई ठोस कदम उठाए, पर यह कानून भी अन्य कानूनों की तरह बिना धार की तलवार बना दिया गया. पूरे विरोध के बावजूद भी इसे 2011 में सरकार ने अधिसूचित कर दिया. २ फरवरी को विश्व आद्र्भूमि दिवस पर शायद ही किसी मीडिया हाउस ने या सरकारी संस्थान ने कोई सार्थक प्रयास किया हो. यहाँ हम यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि कानून बनाने में क्या भूल हुई और क्या खतरे हैं भारत की आद्र्भूमियों को. 

नदियों, जलाशय एवं जमीनी पानी की तरह ही आद्र्भूमि भी जलीय चक्र का एक बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. ये न केवल जमीनी पानी को रिचार्ज करने के काम आती हैं, अपितु जैविक विविधता, जल स्वच्छीकरण, पक्षियों के लिए आराम करने की जगह, जलवायु नियंत्रण आदि कई महत्वपूर्ण कार्य करती हैं. इनकी प्रयावरण की महत्ता को देखते हुए, विश्व समुदाय ने मिलकर 1971 में रामसर अभिसमय(Convention) में इन्हें संरक्षित करने का संकल्प किया था एवं ऐसी आद्र्भूमियों को चिह्नित करने का बीड़ा उठाया था जो अंतर्राष्ट्रीय महत्ता रखती हैं. भारत में ऐसी आद्र्भूमियों की संख्या 25 है जो रामसर अभिसमय के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय आद्र्भूमि हैं. 

इनकी महत्ता को देखते हुए केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय आद्र्भूमि संरक्षण प्रोग्राम भी 1985-86 में घोषित किया था, पर वह भी आशाओं के अनुरूप कार्य नहीं कर पाया. 

इन नियमों की सबसे बड़ी कमी यह है कि आद्र्भूमियों के संरक्षण का सारा जिम्मा केंद्र एवं राज्य सरकार के पास है. लगभग सभी आद्र्भूमि; चाहे वे मानव निर्मित हों या प्राकृतिक ; अपने आस पास एक बड़े समाज का भरण पोषण करती हैं. इनमें मछली पकड़ने वाले, खेती करने वाले एवं अन्य छोटे मोटे कार्य करने वाले असंख्य लोग हैं. भारत के कानून में इन लोगों को कोई स्थान नहीं दिया गया है. हालांकि नियम ये सब गतिविधियाँ सरकार के नियंत्रण में चलाने की अनुमति देते हैं परन्तु इन लोगों की सलाह और इन लोगों के मेलजोल के बिना आद्र्भूमियों का संरक्षण हो पायेगा यह मुश्किल लगता है. 

दूसरी महत्त्व पूर्ण कमियाँ इन नियमों में यह हैं कि लोकल मशीनरी जैसे पंचायत, जिला परिषद् को कोई भी रोल नहीं दिया गया है. इनके पूरे सहयोग के बिना, एवं सलाह के बिना आद्र्भूमि संरक्षण संभव हो पायेगा यह मुश्किल है. लोकल मशीनरी न केवल एक महत्त्वपूर्ण रोल अदा कर सकती हैं बल्कि इनकी सहायता से आद्र्भूमि के आस पास रहने वाले जन-मानस को भी शिक्षित किया जा सकता है. यह एक सत्य है कि कानून बनाना कभी भी किसी समस्या का हल नहीं कर पाया है, इसका हल केवल शिक्षा से हो सकता है. जब तक आस पास के लोग इसे समझेंगे नहीं कि आद्र्भूमि महत्वपूर्ण क्यों है, इनका संरक्षण करना संभव कैसे हो पायेगा. यहाँ यह कहना महत्वपूर्ण होगा कि पिछले दस पन्द्रह सालों में भारत अपनी 38% आद्र्भूमियों के एरिया को खो चुका है और इसके विभिन्न कारण हैं. यदि अब भी शिक्षित नहीं किया गया समाज को तो बहुत देर हो जायेगी. 

अगली कमियां इन नियमों में यह है कि नियमों में एक वर्ष के भीतर भीतर आद्र्भूमियों की सफाई का एक असंभव कार्य करने का बीड़ा उठाया गया है पर यह कहीं भी लक्षित नहीं है कि यह कैसे होगा और इसके लिए क्या क्या क्रिया-कलाप किये जायेंगे. जो कार्य भारत में पिछले साठ वर्षों में नहीं हो पाया, वह एक वर्ष में हो जाएगा यह असंभव  लगता है. 

विभिन्न कमियों में से एक कमी यह भी है कि आद्र्भूमि को नुकसान पंहुचाने वाली गति-विधियों को करने वालों को कितनी सजा मिलेगी. क्या यह आवश्यक नहीं था कि एक कठोर सजा का प्रावधान किया जाता, जबकि समस्त भारत में शिकारी, जल प्रदूषण, गैर कानूनी मछली पकड़ने वाले आद्र्भूमियों को एक ऐसा नुक्सान पंहुचा रहे हैं जो कभी भी ठीक नहीं हो पायेगा. अब ज़रा देखिये, कि सरकार की अनुमति से कोई भी गतिविधि की जा सकती है आद्र्भूमियों में; ज़रा सोचिये कि इसका आद्र्भूमि को फायदा होगा या नुक्सान. अच्छे प्रयावरण को संविधान का एक मौलिक अधिकार माना गया है (देखिये चमेली सिंह बनाम उत्तर प्रदेश सरकार, 1996 सुप्रीम कोर्ट). 

आद्र्भूमियों को चिह्नित करने का तरीका भी गलत है. मुख्य नदी धारा को आद्र्भूमि नहीं माना गया है. अधिकतर आद्र्भूमि किसी न किसी जलधारा से ही निर्मित होती हैं. जब तक जलधारा में प्रदूषण एवं अन्य गैरकानूनी गतिविधियों को रोका नहीं जाएगा,तब तक आद्र्भूमि संरक्षित हो जायेंगी यह संदिग्ध है. हरियाणा की एक महत्वपूर्ण आद्र्भूमि है सुल्तान्पुर(गुडगाँव); यह मुख्य रूप से यमुना से आये जल से निर्मित है. यमुना के प्रदूषण ने इस पर इतना गहरा प्रभाव डाला है कि इसका जल काला हो गया है. यही हाल पंजाब की हरिके आद्र्भूमि का है जहां सतलुज और रावी का प्रदूषण एक कठिन परिस्थिति उत्पन्न कर रहा है. 

हमें सोचना चाहिए और समझना भी चाहिए कि आद्र्भूमि प्रयावरण संरक्षण के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण हैं. न केवल सूखे के समय, बल्कि हर मुश्किल परिस्थिति में प्रयावरण के संतुलन को बनाए रखने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है. पर सरकारें कुछ नहीं कर रही हैं और सभी प्रकार की गैर कानूनी गतिविधियाँ जैसे मछली पकड़ना, शिकार, खनन, जल प्रदूषण यहाँ पर धड़ल्ले से चल रहा है. यदि हम आज भी न संभलें तो बहुत देर हो जायेगी और नुक्सान ऐसा होगा जिसकी भरपाई आने वाली सदियाँ भी नहीं कर पाएंगी. 

भारतीय भाषाओँ का विनाश और इंग्लिश.


लार्ड मैकाले ने भारत में ब्रिटिश शिक्षा पद्दति को जब सख्ती से लागू किया था तो उसने ब्रिटिश सरकार को यह विश्वास दिलवाया था कि भारत में अंग्रेजी और अंग्रेजियत का प्रचार एवं प्रसार यदि किया गया तो भारत की संस्कृति धीरे धीरे समाप्त हो जाएगी और भारत की आने वाली पीढियां एक ऐसे समय में पैदा होंगी जब वे सिर्फ अंग्रेजी में सोचेंगे, अंग्रेजी में पढेंगे और अंततः यदि ब्रिटिश वहां न भी रहे तो भी सांस्कृतिक रूप से भारत हमेशा के लिए ब्रिटेन का गुलाम हो जाएगा. इस ही नीति के तहत उस समय प्रचलित हिन्दुस्तानी, उर्दू और हिंदी जैसी प्रमुख भाषाओं की जगह शिक्षा के लिए अंग्रेजी का प्रयोग किया गया. तीस चालीस साल आते आते भारत में एक ऐसी जमात तैयार हो गयी जो हिंदी और हिन्दुस्तानी को अपनी शान के खिलाफ और संस्कृत को मृत भाषा मानती थी. जब भारत आजाद हुआ तो संविधान निर्माताओं के ऊपर नया संकट पैदा हुआ, उन्हें यह तय करना था के भारत की राष्ट्रीय भाषा क्या होगी. महात्मा गाँधी के शब्दों में," जो सभ्यता अपनी पृथकता और भाषा को त्याग देगी वह मृतप्राय हो जायेगी". एक लम्बी चौड़ी बहस के बाद यह तय किया गया कि भारत वर्ष की मुख्य भाषाओं को संविधान में मान्यता दी जायेगी. अंग्रेजी को शासकीय भाषा के रूप में प्रयोग किया जाएगा और 1965 तक उसे भारत से चलता कर दिया जाएगा. पर इस सन तक आते आते भारत कई हिंदी विरोधी दंगों से गुजरा जिनमें से मुख्य दंगे मद्रास में हुए जहां पर लगभग अस्सी विद्यार्थियों ने स्वयं को आग लगा कर मृत्यु के हवाले कर दिया. इन सब का कहना था कि हिंदी नहीं उनकी अपनी भाषा राष्ट्रीय भाषा बने. अतः एक संविधानिक संशोधन लाकर १९६५ को वैकल्पिक साल बना दिया गया. पर हिंदी और अन्य भाषाओं को बचाने के लिए इच्छा शक्ति तब तक समाप्त हो गयी थी क्योंकि एक पूरी पीढ़ी तैयार हो चुकी थी जो अंग्रेजी को अपने जीवन का अभिन्न अंग एवं अन्य भाषाओं को सौतेला समझती थी. विश्व की सबसे समृद्ध सांस्कृतिक विरासत एवं सबसे महान भाषा संस्कृत की जननी इस भारत भूमि पर उसकी अपनी भाषाएँ बेगानी हो गयी. एक कवि की हिंदी की उपेक्षा पर एक दर्दनांक कविता से समझें तो ,"खाट पर पसरी हुई मेहमान अंग्रेजी के साथ, अपने घर में हिंदी की लाचारगी को सोचना" . इस ही दुर्दशा को देख कर भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी कहा था 

,"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन, पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन 

पर न तो अंग्रेजी रुकी और न ही भारतीय भाषाओं का मान मर्दन रुका. क्या आप जानते हैं कि 1961 की जनगणना में 1652 मातृभाषाओं की सूची बनी थी. जो 1971 में घटकर 109 रह गई. 1971 की जनगणना में जिन भाषाओं को बोलने वाले दस हजार से कम लोग थे, सरकार ने उन्हें गिनना भी मुनासिब नहीं समझा और ऐसी सभी भाषा या बोलियों को ‘अन्य’ की एक श्रेणी में डाल दिया. फिर एक के बाद एक भाषा या बोलियां खत्म होती रहीं, लेकिन किसे परवाह है? आज की पीढ़ी हिंदी को इंग्लिश में, इंग्लिश को अन्य भाषाओँ में मिलाती है. क्या आपको नहीं लगता कि जंगल बचाओ आन्दोलन, शेर बचाओ आन्दोलन की तरह भारत वर्ष में भाषा बचाओ आन्दोलन की सख्त आवश्यकता है. यदि प्रयास नहीं किये गए तो भारत की भाषाएँ विनष्ट हो जायेंगी. पर यहाँ सुनने को कौन बैठा है? हमारी पीढ़ी में कितने लोगों को अपनी मातृभाषा में एक से सौ तक की गिनती आती है? पर अंग्रेजी पोएम अवश्य आती होंगी! 

इस व्यथा ने अंतरात्मा को झझकोर दिया है और समझ नहीं आ रहा है कि क्या बोलूं. इतना कर सकता हूँ कि कम से कम मेरे जीवन में हिंदी और भारतीय भाषाएँ हमेशा सर्वोपरि रहेंगी. 

मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने/अज्ञेय

मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने?
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने?
मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले?
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले?
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने?
पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे?
मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने -
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने!
अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है -
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है -
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला हैमैंने विदग्ध हो जान लिया, 
अन्तिम रहस्य पहचान लिया -
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है!
मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँमेरा जीवन ललकार बने, 
असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने!
भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने -
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने

Friday, February 10, 2012

इंसान

जो लोग जान बूझ के नादान बन गए
मेरा ख्याल है कि वो इंसान बन गए 

हम हश्र में गए मगर कुछ न पूछिए
वो जानबूझ कर वहाँ अनजान बन गए

हँसते हैं हम को देख के अरबाबे-आगाही
हम आपके मिजाज की पहचान बन गए

मंझधार तक पंहुचना तो हिम्मत की बात है
साहिल के आस पास ही तूफ़ान बन गए

इंसानियत की बात तो इतनी है शैख़ जी
बदकिस्मती से आप भी इंसान बन गए

कांटे बहुत थे दामने-फितरत में ऐ 'अदम'
कुछ फूल और कुछ मेरे अरमान बन गए.---"अदम' अब्दुल्हमीद

Wednesday, February 8, 2012

इतिहास परीक्षा थी उस दिन, चिंता से हृदय धड़कता था

इतिहास परीक्षा थी उस दिन, चिंता से हृदय धड़कता था |
थे बुरे शकुन घर से चलते ही, दाँया हाथ फड़कता था ||

मैंने सवाल जो याद किए, वे केवल आधे याद हुए
उनमें से भी कुछ स्कूल तलक, आते-आते बर्बाद हुए

तुम बीस मिनट हो लेट द्वार पर चपरासी ने बतलाया
मैं मेल-ट्रेन की तरह दौड़ता कमरे के भीतर आया

पर्चा हाथों में पकड़ लिया, ऑंखें मूंदीं टुक झूम गया
पढ़ते ही छाया अंधकार, चक्कर आया सिर घूम गया

उसमें आए थे वे सवाल जिनमें मैं गोल रहा करता
पूछे थे वे ही पाठ जिन्हें पढ़ डाँवाडोल रहा करता

यह सौ नंबर का पर्चा है, मुझको दो की भी आस नहीं
चाहे सारी दुनिया पलटे पर मैं हो सकता पास नहीं

ओ! प्रश्न-पत्र लिखने वाले, क्या मुँह लेकर उत्तर दें हम
तू लिख दे तेरी जो मर्ज़ी, ये पर्चा है या एटम-बम

तूने पूछे वे ही सवाल, जो-जो थे मैंने रटे नहीं
जिन हाथों ने ये प्रश्न लिखे, वे हाथ तुम्हारे कटे नहीं

फिर ऑंख मूंदकर बैठ गया, बोला भगवान दया कर दे
मेरे दिमाग़ में इन प्रश्नों के उत्तर ठूँस-ठूँस भर दे

मेरा भविष्य है ख़तरे में, मैं भूल रहा हूँ ऑंय-बाँय
तुम करते हो भगवान सदा, संकट में भक्तों की सहाय

जब ग्राह ने गज को पकड़ लिया तुमने ही उसे बचाया था
जब द्रुपद-सुता की लाज लुटी, तुमने ही चीर बढ़ाया था

द्रौपदी समझ करके मुझको, मेरा भी चीर बढ़ाओ तुम
मैं विष खाकर मर जाऊंगा, वर्ना जल्दी आ जाओ तुम

आकाश चीरकर अंबर से, आई गहरी आवाज़ एक
रे मूढ़ व्यर्थ क्यों रोता है, तू ऑंख खोलकर इधर देख

गीता कहती है कर्म करो, चिंता मत फल की किया करो
मन में आए जो बात उसी को, पर्चे पर लिख दिया करो

मेरे अंतर के पाट खुले, पर्चे पर क़लम चली चंचल
ज्यों किसी खेत की छाती पर, चलता हो हलवाहे का हल

मैंने लिक्खा पानीपत का दूसरा युध्द भर सावन में
जापान-जर्मनी बीच हुआ, अट्ठारह सौ सत्तावन में

लिख दिया महात्मा बुध्द महात्मा गांधी जी के चेले थे
गांधी जी के संग बचपन में ऑंख-मिचौली खेले थे

राणा प्रताप ने गौरी को, केवल दस बार हराया था
अकबर ने हिंद महासागर, अमरीका से मंगवाया था

महमूद गजनवी उठते ही, दो घंटे रोज नाचता था
औरंगजेब रंग में आकर औरों की जेब काटता था

इस तरह अनेकों भावों से, फूटे भीतर के फव्वारे
जो-जो सवाल थे याद नहीं, वे ही पर्चे पर लिख मारे

हो गया परीक्षक पागल सा, मेरी कॉपी को देख-देख
बोला- इन सारे छात्रों में, बस होनहार है यही एक

औरों के पर्चे फेंक दिए, मेरे सब उत्तर छाँट लिए |
जीरो नंबर देकर बाकी के सारे नंबर काट लिए ||


मूल रचनाकार - ओम प्रकाश आदित्य

Saturday, February 4, 2012

मेरी दुनिया में बन्दे के खुदा होने का वक़्त आया

शबाब आया किसी बुत पर फ़िदा होने का वक़्त आया
मेरी दुनिया में बन्दे के खुदा होने का वक़्त आया

उन्हें देखा तो जाहिद ने कहा ईमान की ये है
कि अब इंसान के सिजदा रवा होने का वक़्त आया

तकल्लुम की ख़ामोशी कह रही है हर्फे-मतलब से
कि अश्क-आमेज नज़रों से अदा होने का वक़्त आया

खुदा जाने ये है औजे-यकीं या पस्ती-ए-हिम्मत
खुदा से कह रहा हूँ नाखुदा होने का वक़्त आया

हमें भी आ पडा है दोस्तों से काम कुछ यानी
हमारे दोस्तों के बेवफा होने का वक़्त आया----पंडित हरिचंद 'अख्तर'

अश्क-आमेज=आंसू भरी, औजे-यकीं=विश्वास की पराकाष्टा, पस्ती-ए-हिम्मत=साहस.

कितनी  गूढ़ सच्चाई छिपी है इस ग़ज़ल में, ज़रा सोचिये 

Friday, February 3, 2012

अमन की बात करे जब, करे तकरार के साथ

एक कमाल की कविता मिली यहाँ वहां घुमते हुए, आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ. कवि का नाम है कट्टा कानपुरी: 

अमन की बात करे जब, करे तकरार के साथ,
मिला करे है गले भी, मगर तलवार के साथ.

बताये मार्क्स, माओ, लेनिन को अपना रहबर
दौड़ता रहता है वो भी, इसी बाज़ार के साथ.

वक़्त के साथ पैमाना भी खाली,महफ़िल भी
लिपटकर रोयेगा फिर वो किसी दीवार के साथ

मिटाकर चंद गरीबों को हुकूमत समझे
मुल्क अब दौड़ेगा तेजी से इस संसार के साथ

न समझा है, न समझेगा वो खामोशी की ताक़त
पड़ोसी फिर मिलेगा झूठी इक ललकार के साथ

हमें उम्मीद थी जिससे कि, उठाएगा सवाल
दिखाई रोज देता है वही सरकार के साथ

समझते हैं सभी 'कट्टा' को सितमगर लेकिन
खड़ा मिलेगा हमेशा किसी हकदार के साथ