एक कमाल की कविता मिली यहाँ वहां घुमते हुए, आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ. कवि का नाम है कट्टा कानपुरी:
अमन की बात करे जब, करे तकरार के साथ,
मिला करे है गले भी, मगर तलवार के साथ.
बताये मार्क्स, माओ, लेनिन को अपना रहबर
दौड़ता रहता है वो भी, इसी बाज़ार के साथ.
वक़्त के साथ पैमाना भी खाली,महफ़िल भी
लिपटकर रोयेगा फिर वो किसी दीवार के साथ
मिटाकर चंद गरीबों को हुकूमत समझे
मुल्क अब दौड़ेगा तेजी से इस संसार के साथ
न समझा है, न समझेगा वो खामोशी की ताक़त
पड़ोसी फिर मिलेगा झूठी इक ललकार के साथ
हमें उम्मीद थी जिससे कि, उठाएगा सवाल
दिखाई रोज देता है वही सरकार के साथ
समझते हैं सभी 'कट्टा' को सितमगर लेकिन
खड़ा मिलेगा हमेशा किसी हकदार के साथ
मिला करे है गले भी, मगर तलवार के साथ.
बताये मार्क्स, माओ, लेनिन को अपना रहबर
दौड़ता रहता है वो भी, इसी बाज़ार के साथ.
वक़्त के साथ पैमाना भी खाली,महफ़िल भी
लिपटकर रोयेगा फिर वो किसी दीवार के साथ
मिटाकर चंद गरीबों को हुकूमत समझे
मुल्क अब दौड़ेगा तेजी से इस संसार के साथ
न समझा है, न समझेगा वो खामोशी की ताक़त
पड़ोसी फिर मिलेगा झूठी इक ललकार के साथ
हमें उम्मीद थी जिससे कि, उठाएगा सवाल
दिखाई रोज देता है वही सरकार के साथ
समझते हैं सभी 'कट्टा' को सितमगर लेकिन
खड़ा मिलेगा हमेशा किसी हकदार के साथ
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