Saturday, October 29, 2011

मेरी कहानी, मेरी आवाज

यह मेरी कहानी है, बस इसमें सोच अलग है, तरीका अलग है. व्यक्ति विशेष क्या सोचता है, समाज क्या सोचता है, इस से मेरा कोई सरोकार कभी भी नहीं रहा है. मेरा पथ अलग है, चाहे वह मुझे सफलता की रौशनी दिखाए या असफलता की गहराई, पर इससे मेरे इरादे कभी भी कमजोर नहीं हो सकते. एक शायर ने कहा है "मेरी तकदीर को बदल देंगे, मेरे पुख्ता इरादे,मेरी किस्मत नहीं मुहताज, मेरे हाथों की लकीरों की." बस मेरे जीवन का सार यहीं कहीं है. यह यात्रा मेरे लिए विशेष है, और मेरे साथ चलने वाले यात्री भी विशेष हैं. यात्रा अलग, यात्री अलग, मंजिल कहाँ लेकर जायेगी इस बारे में सोचना मेरे लिए महत्वपूर्ण नहीं है. इसके बजाये मेरे लिए महत्वपूर्ण है कि यह राह किसी और के पदों को, किसी और के स्वप्नों को रौंद कर न चले. बस इस नयी राह को ही मैं यहाँ मेरे इस ब्लॉग में लिखूंगा. मुझे शायद विश्वास है कि कोई इसे न पढ़े, चूँकि एक आम इंसान के जीवन में किसी कि कोई दिलचस्पी नहीं होती. पर फिर भी एक आम इंसान होने के बावजूद अपने जीवन को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता मेरे पास है. कम-से-कम जीवन के किसी मौड़ पर ऐसा न लगे कि मैंने अपने अनुभवों को संकलित नहीं किया. इस लिए मैं लिख रहा हूँ. यह कलम महत्वपूर्ण है, उतनी ही महत्वपूर्ण जितना यह जीवन है. 

रविन्द्र सिंह ढुल 

हम शर्मिंदा हैं

किसी देश को समाप्त करना है तो उसके इतिहास को समाप्त कर दीजिये.यह उक्ति ब्रिटिश अफसरों ने अपनाई थी और उसका नतीजा सामने है. कितने व्यक्ति आज के दिन हमारी राष्ट्र भाषा को जानते हैं, हमारे इतिहास एवं संस्कृति को जानते हैं. अत्यंत शर्मिंदा करने वाले अनेकों कार्य इस देश में लगातार हो रहे हैं. राजनीति शास्त्र हम विदेशी सीखते हैं, अनुशासन हम विदेशी सीखते हैं, भाषा हम विदेशी सीखते हैं. १०० वर्ष और रुक जाइए भारत का  इतिहास बिल्कुल मिट जाएगा हमारे बच्चों के भीतर से. झांसी की रानी की वीरता की कहानियां हम भूल चुके हैं. गीता हम अंग्रेजी में पढ़ते हैं. धर्म को हम पाखण्ड मानते हैं और हिंदी बोलने वाले को पाखंडी. बहुत बुरा लगता है यह देख कर कि अपना कद ऊंचा करने के लिए जब दो हिंदी भाषी अंग्रेजी में बात करते हैं. भारत वर्ष तो कब का टूट चुका है, हिंद भी टूट गया तो हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा. 


Friday, October 28, 2011

प्रयास

कुछ व्यक्तियों का सोचना रहता है कि क्यों इतना ज्ञान देने का निरर्थक प्रयास मैं करता रहता हूँ. इसका उत्तर ऋग्वेद में दिया है "वदन् ब्रःमावदतो वनीयान. ( १०.११७.७ ). अर्थात उपदेश देने वाला विद्वान् चुप रहने वाले से श्रेष्ट है. अपने भावों को व्यक्त करना कहीं भी बुरा नहीं कहा जा सकता. उस से प्रभावित होना या न होना पढने या सुनने वाले का नीहित अधिकार है. यदि किसी महत्वपूर्ण विषय पर टिप्पणी से किसी व्यक्ति को दिशा मिलती है तो यह प्रयास सार्थक ही कहा जाएगा. भले ही अपने आप को विद्वान् समझना थोड़ा अधिक है अपितु फिर भी पढ़ा लिखा होने का गौरव तो मुझे प्राप्त है ही.अतः मैं प्रयास करता रहूँगा. उसे सार्थक या निरर्थक समझना दूसरों का कार्य है. 


नया जीवन

मेरा जीवन राष्ट्र, धर्म एवं हिंदी को समर्पित है. अपना अंदाज मैं स्वयं हूँ. मेरी शिक्षक मेरी पुस्तकें एवं मेरा मस्तिष्क है. अब ज़रा कुछ नया प्रारंभ किया जाए. थोमस एल्व एडिसन ने एक बार कहा था कि १००० निष्क्रिय विचारों से १ सक्रीय विचार अधिक महत्वपूर्ण है. निष्क्रियता छोड़ समर में कूदने का समय आ गया है, वह भी अत्यंत वेग से. माँ भारती हमेशा की तरह मेरा मार्ग प्रशस्त करेगी. जय हिंद. 


Wednesday, October 26, 2011

ढीली करो धनुष की डोरी – रामधारी सिंह "दिनकर"


राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की यह महान रचना सोचने पर मजबूर करती है. यह रचना आजादी के सात वर्ष के बाद लिखी गयी थी. इसमें श्री दिनकर की व्यथा स्पष्ट है. इसे उन्होंने उस समय व्याप्त भ्रष्टाचार से त्रस्त होकर लिखा था. इसे पढ़ें एवं सोचें...जय हिंद.

ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,
 किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?
किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?

कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान ।

फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले !
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है ।

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार ।

वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है
माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है

पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज
सात(साठ) वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में

समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा

समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं

कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे

समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर

समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल

तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध   – रामधारी सिंह "दिनकर"

Friday, October 21, 2011

धर्म/ गोपाल दास नीरज

जिन मुश्किलों में मुस्कुराना हो मना,
उन मुश्किलों में मुस्कुराना धर्म है..

जिस वक़्त जीना गैर मुमकिन सा लगे,
उस वक़्त जीना फर्ज है इंसान का,
लाजिम लहर के साथ है तब खेलना,
जब हो समुन्द्र पे नशा तूफ़ान का
जिस वायु का दीपक बुझना ध्येय हो
उस वायु में दीपक जलाना धर्म है.

हो नहीं मंजिल कहीं जिस राह की
उस राह चलना चाहिए इंसान को
जिस दर्द से सारी उम्र रोते कटे
वह दर्द पाना है जरूरी प्यार को
जिस चाह का हस्ती मिटाना नाम है
उस चाह पर हस्ती मिटाना धर्म है.

आदत पड़ी हो भूल जाने की जिसे
हर दम उसी का नाम हो हर सांस पर
उसकी खबर में ही सफ़र सारा कटे
जो हर नजर से हर तरह हो बेखबर
जिस आँख का आखें चुराना काम हो
उस आँख से आखें मिलाना धर्म है...

जब हाथ से टूटे न अपनी हथकड़ी
तब मांग लो ताकत स्वयम जंजीर से
जिस दम न थमती हो नयन सावन झड़ी 
उस दम हंसी ले लो किसी तस्वीर से
जब गीत गाना गुनगुनाना जुर्म हो
तब गीत गाना गुनगुनाना धर्म है.