Friday, October 28, 2011

प्रयास

कुछ व्यक्तियों का सोचना रहता है कि क्यों इतना ज्ञान देने का निरर्थक प्रयास मैं करता रहता हूँ. इसका उत्तर ऋग्वेद में दिया है "वदन् ब्रःमावदतो वनीयान. ( १०.११७.७ ). अर्थात उपदेश देने वाला विद्वान् चुप रहने वाले से श्रेष्ट है. अपने भावों को व्यक्त करना कहीं भी बुरा नहीं कहा जा सकता. उस से प्रभावित होना या न होना पढने या सुनने वाले का नीहित अधिकार है. यदि किसी महत्वपूर्ण विषय पर टिप्पणी से किसी व्यक्ति को दिशा मिलती है तो यह प्रयास सार्थक ही कहा जाएगा. भले ही अपने आप को विद्वान् समझना थोड़ा अधिक है अपितु फिर भी पढ़ा लिखा होने का गौरव तो मुझे प्राप्त है ही.अतः मैं प्रयास करता रहूँगा. उसे सार्थक या निरर्थक समझना दूसरों का कार्य है. 


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