Tuesday, November 27, 2012

भारत की सीमाएं


एक बेहद सुन्दर ब्लॉग से मुझे आज चाणक्य सीरियल का चन्द्रगुप्त मौर्या द्वारा दिया गया वह भाषण मिला जो उन्होंने अपने राज्याभिषेक पर दिया था। इसे पढ़ें और आज की स्थिति के अनुसार इसके बारे में सोचें, मैं इसको लिखित रूप में प्रस्तुत करने के लिए इस ब्लॉग के लेखक का आभारी हूँ:-

ब्लॉग का एड्रेस है:"http://kalchiron.blogspot.in"

अरट्ट के कुलमुख्यों और वाहिक प्रदेश के विभिन्न गणराज्यों से आये गणमुख्यों का मैं स्वागत करता हूँ. आज वाहिक प्रदेश के अधिकांश जनपद यवनों की दासता से मुक्त हो गए हैं, और शीघ्रही अन्य जनपद भी मुक्त होंगे. अरट्ट जनपद ने अपने प्रशासन का उत्तरदायित्व मेरे कंधो पर डाला हैं, जिसे मैं सहर्ष स्वीकार करता हूँ.

परन्तु वास्तव में जनपदों को शासकों की अपेक्षा एक प्रणाली की आवश्यकता हैं. एक ऐसी प्रणाली जो जनपदीय मानसिकता की संकीर्ण राजनीती से ऊपर उठकर संपूर्ण राष्ट्र को एक परिवार, एक जनपद के रूप में देखेगी, क्योंकि जनपद राष्ट्र का उसी प्रकार अविभाज्य अंग होता हैं. तो विभिन्न जनपद अपने अस्तित्व के लिया संघर्षरत क्यों हैं आपस में? क्या अपने परिवार की किसी पीड़ित सदस्य को देखकर आप पीड़ित नहीं होते? क्या अपने परिवार की किसी अभावग्रस्त सदस्य के अभाव को पूर्ण करने का प्रयत्न नहीं करते? अपने परिवार के किसी सदस्य के सुख-दुःख में आप तठस्थ कैसे रह सकते हैं?

समाज के लिए व्यक्ति का त्याग हमारी परंपरा हैं. किसलिए शिव ने विषपान किया था? किसलिए महर्षि दधिची ने अपनी अस्थियों का दान दिया था? तो आज समाज के लिए व्यक्ति और राष्ट्र के लिए समाज त्याग करने के लिए तत्पर क्यों नहीं हैं? क्यों एक समाज को ये आभास होता हैं की वह दुसरे समाज का विनाश करके ही विकसित और पल्लवित हो सकता हैं? क्यों एक जनपद को भ्रम हैं की दुसरे जनपद का उत्कर्ष उसकी प्रगति में बाधक हैं? क्यों एक व्यक्ति को ये आभास होता है की जीवन के लिया वह दुसरे व्यक्ति से संघर्षरत हैं? क्या बीज पर्ण से संघर्षरत हैं? क्या जड़ें उसपर खड़े वृक्ष से संघर्षरत हैं? तो हम सब संघर्षरत क्यों हैं आपस में? क्या तुम्हे नहीं लगता की पर्ण, जड़, तना, शाखा सब में बीज का रूप विद्यमान हैं? पर फिर भी बीज दिखाई नहीं देता. हमारी राष्ट्रीयता भी इसी प्रकार दिखाई नहीं देती. किन्तु वह प्रत्येक भारतीय में विद्यमान हैं. यदि तुम बीज को खोजोगे तो तुम्हे अपने भीतर की राष्ट्रीयता का आभास होगा. और यदि राष्ट्रीयता का वह बीज हम सब में विद्यमान हैं, तो मैं तुमसे भिन्न कैसे हुआ?

तो क्या आवश्यकता की हमें यवनों से लड़ने की जबकि हम सब जानते हैं की इस पृथ्वी पर रहनेका अधिकार जितना हमें हैं, उतना उन्हें भी हैं. पर फिर भी हमने यवनों के शासन को अस्वीकार कर दिया. क्यों? हमने यवनों का शासन अस्वीकार किया क्योंकि हमें स्वतन्त्रता प्रिय हैं. पर क्या अर्थ हैं इस स्वतंत्रता का? क्या स्वतन्त्रता का अर्थ मात्र किसी शासन या व्यक्ति से मुक्ति हैं? क्या व्यक्ति की स्वतन्त्रता का अर्थ स्वेछा हैं? क्या व्यक्ति को समाज के बंधन स्वीकार नहीं करने पड़ते? क्या समाज को राष्ट्र के बंधन स्वीकार नहीं करने पड़ते? तो व्यक्ति को समाज और समाज को राष्ट्र के बंधन स्वीकार करने के पश्चात् भी क्यों ऐसा लगता हैं की वह स्वतंत्र हैं? क्या हैं वह "स्व" का बोध जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र में सामान्य हैं? क्या हैं वह तंत्र जिससे बंधने की पश्चात भी व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को स्वतन्त्रता का बोध होता हैं? किसने निर्माण किया हैं वह तंत्र जिसे आप सभी स्वेछा से स्वीकार करते हैं? क्या देती हैं वह स्वतन्त्रता जिसके लिए व्यक्ति स्वयं का उत्सर्ग करने के लिए तत्पर हो जाता हैं? क्या हैं वह तंत्र जिसे हम स्व-तंत्र कहते हैं? क्यों हम स्वातंत्र्य में जीना चाहते हैं और यवनों के पारतंत्र्य में नहीं? इस "स्व" और "पर" में क्या अंतर हैं? क्यों हम यवनों के उस तंत्र को स्वीकार नहीं कर पायें?

क्योंकि हमारी उस तंत्र में आस्था हैं जिसका निर्माण हमारे तत्वचिन्तकों और मनीषियों ने किया हैं. क्योंकि हमारी उन जीवनमूल्यों में आस्था हैं जिनका निर्माण हमारे स्वजनों ने किया और समष्टि के कल्याण की वह थाती विरासत में हमारे हाथों में आती गयी जिनका निर्वाह हमारी पूर्व-पीढियों ने किया. शाश्वत सत्य और ज्ञान के प्रकाश में जीवन के जिन मूल्यों का निर्माण हमारे ऋषियों ने किया वह हमारा स्वतंत्र हैं. उन्ही श्रेष्ठ जीवनमूल्यों के प्रकाश में हम हमारे सामाजिक व्यवस्था की प्रणाली निश्चित करते आये हैं. हमारे व्यक्तिगत, सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन का आधार हमारे अपने पूर्वजों का तंत्र ही हो सकता हैं. इसीलिए हम स्वतन्त्रता के आग्रही हैं.

परन्तु क्या वह प्रणाली, क्या वह पद्धति, क्या वह स्वतन्त्रता मालव और क्षुद्रक के लिए भिन्न हैं? क्या केकय और पांचाल के लिए भिन्न हैं? क्या श्रेष्ठ मूल्यों की उपासना भिन्न-भिन्न जनपदों के लिए भिन्न-भिन्न हो सकती हैं? जिन मूल्यों की निर्मिती हमारे पूर्वजों ने की हो वह भिन्न-भिन्न जनपदों के लिए भिन्न-भिन्न कैसे हो सकती हैं? परन्तु हम उस बीज को नहीं देख पा रहे हैं जो वृक्ष के सभी अंगों में विद्यमान हैं. हम संस्कृति के उस प्रवाह को नहीं देख पा रहे हैं जो प्रत्येक जनपद के जीवनधारा में अनुप्राणित हो रही हैं. जनपद उसी विशाल वृक्ष को शाखाएँ हैं, परन्तु हमारा बीज एक ही हैं. हम अपनी जड़ों को नहीं देख पा रहे हैं और बाहरी भिन्नता को देख अपने अन्तरंग की एकात्मता को नकार रहे हैं. अनेकता में एकता को नहीं देख पा रहे हैं. या, उसे जानभूझ कर नकार रहे हैं क्योंकि उसमे राजनीतिक स्वार्थ निहित हैं.

मैं जानता हूँ की कुछ जनपदों की राजनीतिक व्यवस्था में भिन्नता हैं. मगर राजनीतिक व्यवस्था संस्कृति नहीं हैं. राजनीतिक व्यवस्था संस्कृति की पूरक हो सकती हैं, संस्कृति का पर्याय नहीं. संस्कृति का प्रवाह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को समुत्कर्ष का मार्ग प्रर्दशित करता हैं, तो राजनीति का दायित्व भी व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का उत्कर्ष ही हैं. तो क्यों व्यक्ति व्यवस्था के नाम पर संघर्ष करता हैं? संभवतः इसलिए की वह व्यक्ति और समाज में समस्त हो नहीं देख पाता. अथवा इसलिए की उसका व्यक्तिगत स्वार्थ उसे संघर्ष करने के लिए प्रेरित कर रहा हैं. और इसी व्यक्तिगत स्वार्थ और एकात्मता के भाव के अभाव के कारण हमें यवनों के समक्ष अपना स्वाभिमान समर्पित करने के लिए विवश कर दिया था.

यवनों ने भिन्न-भिन्न जनपदों के आस्था के भेद को नहीं देखा था. आक्रान्ताओं ने सभी के साथ एक जैसा व्यवहार किया था. दुर्भाग्य ही था की सभी जनपदों ने मिलकर यवनों का सम्मिलित रूप से प्रतिकार नहीं किया. क्यों?? क्योंकि हममे राष्ट्रीय चरित्र का अभाव था. यदि सभी जनपदों ने राष्ट्र के रूप में संगठित होकर यवनों का प्रतिकार किया होता तो क्या यवनों के लिए इस धरा पर विजय पाना संभव था? यदि सिन्धु की रक्षा का दायित्व सभी जनपदों के लिया होता तो क्या यवनों को सिन्धु को पार कर पाना संभव था? पर कठ, मद्रक, क्षुद्रक और मालव गणराज्यों को ये विश्वास नहीं हो रहा था की उनके प्रदेशों की सीमाओं का द्वार भी तक्षशिला हैं.

जहाँ तक हमारी संस्कृति का विस्तार हैं, वहां तक हमारी सीमाए हैं. हिमालय से समुद्र पर्यंत ये संपूर्ण भूमि हमारी अपनी भूमि हैं, हमारा अपना राष्ट्र हैं. और इस राष्ट्र की रक्षा हम नहीं करेंगे तो इस राष्ट्र की रक्षा कौन करेगा. यदि हमने अबभी संगठित होकर राष्ट्र के रूप में अपना परिचय नहीं दिया तो आक्रान्ताओं का पुनरागमन हो सकता हैं और इतिहास की पुनरावृत्ति. यदि हम अबभी संगठित नहीं हुए तो आक्रान्ताओं का मार्ग प्रशस्त हैं. आवश्यकता हैं हमें एक छत्र के नीचे एकत्र होने की. ताकि ये राष्ट्र सुदृढ़ और सक्षम हो, शक्तिशाली हो, गौरवशाली हो, और हम अमृत के अमर्त्य पुत्र कह सकें की प्रशस्त पुण्य-पंथ हैं, बढे चलो बढे चलो..


पैगाम

गुरु नानक देव जी के जन्मदिन पर अल्लामा इकबाल जी के द्वारा लिखी गयी एक ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह ग़ज़ल उन्होंने गुरु नानक देव जी के लिए ही लिखी थी।

कौम ने पैग़ाम-ए-गौतम की ज़रा परवा न की
क़द्र पहचानी न अपने गौहर-ए-यक-दाना की

आह बदकिस्मत रहे, आवाज़-ए-हक़ से बेख़बर
ग़ाफ़िल अपने फल की शीरीनी से होता है शजर

आशकार उसने किया जो ज़िन्दगी का राज़ था
हिन्द को लेकिन खयाली फलसफे पे नाज़ था

शमा-ए-हक़ से जो मुनव्वर हो ये वोह महफ़िल न थी
बारिश-ए-रहमत हुई, लेकिन ज़मीं काबिल न थी

आह शूद्र के लिए हिंदोस्तां ग़मखाना है
दर्द-ए-इंसानी से इस बस्ती का दिल बेगाना है

बरहमन सरशार है अब तक मय-ए-पिन्दार में
शमा-ए-गौतम जल रही है महफ़िल-ए-अग्यार में

बुतकदा फिर बाद मुद्दत के मगर रोशन हुआ
नूर-ए-इब्राहीम से आज़र का घर रोशन हुआ

फिर उठी आखिर सदा तौहीद की पंजाब से 
हिन्द को एक मर्द-ए-कामिल* ने जगाया ख़्वाब से 


मर्द-ए-कामिल= महान इंसान


इस सुन्दर ग़ज़ल को मैंने एक बढ़िया ब्लॉग से प्राप्त किया है। आप सब को सतगुरु नानक देव जी के प्रकाशोत्सव पर बधाई।


Monday, November 26, 2012

धर्म

फेसबुक से कुछ समय के लिए छुट्टी ली है तो सोचा है कि कुछ अपने लिए लिखूं और कुछ पढूं। इस ही कड़ी में मैंने एक ब्लॉग पढ़ते हुए मनु स्मृति का एक श्लोक ढूँढा जो शायद मेरी कई दुविधाओं का हल हो सकता है। मैं हमेशा से इच्छुक रहा हूँ यह जानने का कि धर्म क्या है और क्यों इसे धर्म कहते हैं। एक श्लोक में धर्म क्या है इसका सार है, यह महत्त्वपूर्ण क्यों है यह जानने में बहुत समय चाहिए। अपनी सीमित सी बुद्धि से जो सोच पाऊंगा वह लिखूंगा।

धृतिः  क्षमा  दमोऽस्तेयं  शौचं  इन्द्रिय  निग्रहः ।
धीः  विद्या  सत्यमक्रोधो  दशकं  धर्म  लक्षणम् ।। 


धर्म का प्रथम लक्षण है धृति: अर्थात धैर्य। हर हाल में और हर परिस्थिति में धैर्य रखना धर्म का पहला लक्षण है। सुख दुःख, लाभ हानि, अच्छा और बुरा; हर अवस्था में धैर्य मनाये रखना किसी धार्मिक व्यक्ति का कार्य है।

धर्म का दूसरा लक्षण है क्षमा। हर प्राणी के ऊपर दया दृष्टि रखना।

धर्म का तीसरा लक्षण है दम अर्थात  दमन। अपनी इच्छाओं को और अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना दमन है।

धर्म का चौथा लक्षण है अस्तेय अर्थात दुसरे के धन के ऊपर नजर न रखना, चोरी न करना।

धर्म का पांचवां लक्षण है शौच अर्थात पवित्रता। अपने तन को पवित्र रखना भी एक धर्म का लक्षण है।

धर्म का छटा लक्षण है इन्द्री निग्रह। अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना धर्म का लक्षण है।

धर्म का सातवाँ लक्षण है धी अर्थात बुद्धि। बुद्धिमान व्यक्ति भले ही आस्तिक हो या नास्तिक धर्म के इस लक्षण पर खरा उतरता है।

धर्म का आठवां लक्षण है विद्या। यह किसी भी प्रकार की हो सकती है। बिना विद्या संसारमें कुछ प्राप्त नहीं हो सकता। यह लौकिक और अलौकिक दोनों हो सकती है।

धर्म का नौवां लक्षण है सत्य। सत्य अपने आप में इतना बड़ा और पवित्र है कि  किसी भी धर्म से ऊपर है। पर हम इसे अपने धर्म का भाग मानते हैं।

धर्म का दसवां और अंतिम लक्षण है अक्रोध। क्रोध किसी भी कार्य को बिगाड़ने की क्षमता रखता है अतः इसे अधर्म के साथ माना गया है।

इस अति पवित्र धर्म को आजकल कितना छोटा मान लिया गया है उसको हम सब देख सकते हैं।

गोस्वामी तुलसीदास एक जगह कहते हैं कि "परहित सरसी धर्म नहीं भाई" अर्थात किसी और की सेवा से ऊपर कोई भी धर्म नहीं है। इसे हम ग्यारहवां लक्षण मान सकते हैं।

कल चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।

रविन्द्र




Friday, November 16, 2012

ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल

दुष्यंत कुमार की पुस्तक "साए में धूप " एक अपाहिज समाज की व्यथा है जो भारत के आजाद होने के बाद इसके नेताओं ने इसे बना दिया है। एक ग़ज़ल नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ कृपया ध्यान से पढ़ें और सोचें:

ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल, लोगो 

-देखिये यहाँ पर दुष्यंत जी खोखले समाज की खोखली तरक्की पर करारा प्रहार कर रहे हैं और कह रहे हैं कि जो तरक्की की रौशनी भारतवर्ष में व्याप्त है ; वह एक धोखा है और जल में झलकते हुए महल की तरह है जो दीखता तो है पर असल में होता नहीं है और उसे महसूस भी नहीं कर सकते हैं। भारत वर्ष में गरीबी और भुखमरी आज भी व्याप्त है तो भारत के तरक्की करने का सवाल ही नहीं होता। जब तक निम्नतम वर्ग का नागरिक इस तरक्की का भागीदार न हो तब तक यह एक छल मात्र है।

दरख़्त हैं तो परिन्दे नज़र नहीं आते
जो मुस्तहक़ हैं वही हक़ से बेदख़ल, लोगो 

-पेड़ हैं तो उस पर परिंदे नहीं नजर आते, जो हकदार हैं वही हैं हक़ से बेदखल। दुष्यंत जी की व्यथा यहाँ और भी गंभीर हो जाती है और वे सीधे सीधे कहते हैं कि जिन परिंदों का दरख़्त कभी घर हुआ करता था; वे परिंदे अब नजर नहीं आते और जो हकदार हैं उन्हें हक़ से वंचित होना पद रहा है। किसान को और मजदूर को ले लीजिये।  किसान जो समूचे राष्ट्र को अन्न पैदा करके देता है; वह भूखा सोता है और मजदूर जिसकी मेहनत से एक इमारत खड़ी होती है वह बिना छत के सोता है। तरक्की यहाँ बेमानी है।

वो घर में मेज़ पे कोहनी टिकाये बैठी है
थमी हुई है वहीं उम्र आजकल ,लोगो 

किसी भी क़ौम की तारीख़ के उजाले में
तुम्हारे दिन हैं किसी रात की नकल ,लोगो 
-
देखिये यहाँ दुष्यंत जी की व्यथा, वे कह रहे हैं कि आपकी तरक्की तो किसी की तरक्की की नक़ल मात्र है।

तमाम रात रहा महव-ए-ख़्वाब दीवाना
किसी की नींद में पड़ता रहा ख़लल, लोगो 

-कोई तो तमाम रात स्वप्न में खोया रहा और कोई अपनी बेकारी के कारण सो ही नहीं पाया। हमारी तरक्की की मिसाल एक पूरी तरह से असमान समाज की संरचना है। जहाँ अमीर और अमीर हो रहा है वहीँ गरीब और गरीब हो रहा है। भारतवर्ष में व्याप्त यह सामाजिक ताना बाना कहीं से भी तरक्की की मिसाल कायम नहीं करता। 


ज़रूर वो भी किसी रास्ते से गुज़रे हैं
हर आदमी मुझे लगता है हम शकल, लोगो 

दिखे जो पाँव के ताज़ा निशान सहरा में
तो याद आए हैं तालाब के कँवल, लोगो 

वे कह रहे हैं ग़ज़लगो नहीं रहे शायर
मैं सुन रहा हूँ हर इक सिम्त से ग़ज़ल, लोगो।

-इन महान रचनाओं में भारत के समाज की सही रचना सामने आती है जो इस भारत से बिलकुल परे है जो सरकारें या मीडिया सच में हम सबको दिखाते हैं। 

Monday, November 12, 2012

नमस्कार

राम गइओ रावन गइओ, जाको बहु परिवार।
कहु नानक थिरु कुछ नहीं, सुपने जिऊँ संसार॥

एक बेहद सुन्दर साखी के साथ आप सब को प्रणाम। श्री गुरु तेग बहादुर के द्वारा रचित इस साखी में वे कहते हैं कि इस संसार से श्री राम भी चले गए, रावण भी चला गया, वे कहते हैं कि आपका कुछ नहीं है और यह संसार एक स्वप्न की तरह है। इस दीपावली के शुभ अवसर पर जब आधा भारत इस बात को सोचने में व्यस्त है कि श्री राम अच्छे पति थे या बुरे थे; ऐसे समय में जब भारत के राजनेता अपनी जुबान पर से पूरा नियंत्रण खो चुके हैं। त्योहारों को एक व्यापार बना दिया गया है; ऐसे समय में आइये हमारी जड़ों में चलें और ऐसे शब्द खोज कर लायें जो इस अँधेरे में रौशनी का एहसास करवाए और हमें इन व्यर्थ चिंताओं से और व्यर्थ दौड़ से मुक्त करवाए। यह दीपावली आप सब के परिवारों के लिए एक नयी रौशनी लेकर आये जिससे आपके अन्दर का अधकार मिटे; बाहर का नहीं। क्या हम  रावण के पैरों की धूल बनने के लायक भी हैं जो श्रीराम के चरित्र के बारे में बोलने के समर्थ हो गए हैं।माँ भारती आपका मार्ग प्रशस्त करे। जय हिन्द।

Saturday, September 1, 2012

"क्या जय महाराष्ट्र सही है"

यही कोई पंद्रह वर्ष पहले दूरदर्शन पर एक सीरियल आता था "चाणक्य" नाम से . देश प्रेम के वाक्यों से लबालब यह सीरियल सही मायने में एक महान रचना थी। उस सीरियल के एक एपिसोड में चाणक्य कहते हैं,

"यवनों ने भिन्न-भिन्न जनपदों के आस्था के भेद को नहीं देखा था. आक्रान्ताओं ने सभी के साथ एक जैसा व्यवहार किया था.  दुर्भाग्य ही था की सभी जनपदों ने मिलकर यवनों का सम्मिलित रूप से प्रतिकार नहीं किया.  क्यों??  क्योंकि हममे राष्ट्रीय चरित्र का अभाव था. यदि सभी जनपदों ने राष्ट्र के रूप में संगठित होकर यवनों का प्रतिकार किया होता तो क्या यवनों के लिए इस धरा पर विजय पाना संभव था? यदि सिन्धु की रक्षा का दायित्व सभी जनपदों के लिया होता तो क्या यवनों को सिन्धु को पार कर पाना संभव था? पर कठ, मद्रक, क्षुद्रक और मालव गणराज्यों को ये विश्वास नहीं हो रहा था की उनके प्रदेशों की सीमाओं का द्वार भी तक्षशिला हैं. जहाँ तक हमारी संस्कृति का विस्तार हैं, वहां तक हमारी सीमाए हैं.  हिमालय से समुद्र पर्यंत ये संपूर्ण भूमि हमारी अपनी भूमि हैं, हमारा अपना राष्ट्र हैं. और इस राष्ट्र की रक्षा हम नहीं करेंगे तो इस राष्ट्र की रक्षा कौन करेगा.   यदि हमने अबभी संगठित होकर राष्ट्र के रूप में अपना परिचय नहीं दिया तो आक्रान्ताओं का पुनरागमन हो सकता हैं और इतिहास की पुनरावृत्ति. यदि हम अबभी संगठित नहीं हुए तो आक्रान्ताओं का मार्ग प्रशस्त हैं. आवश्यकता हैं हमें एक छत्र के नीचे एकत्र होने की. ताकि ये राष्ट्र सुदृढ़ और सक्षम हो, शक्तिशाली हो, गौरवशाली हो, और हम अमृत के अमर्त्य पुत्र कह सकें की प्रशस्त पुण्य-पंथ हैं, बढे चलो बढे चलो.."

आज कल राज ठाकरे राष्ट्रीय चेन्नलों पर अपने एक घटिया से बयान के कारण छाए हुए हैं। अपने बुजुर्ग बाल ठाकरे के नक़्शे कदम पर चलते हुए राज ठाकरे मराठी मानुष, जय महाराष्ट्र का नारा कई वर्षों से बुलंद किये हुए हैं और कांग्रेस की सरकार जानकार उनपर कार्यवाही नहीं कर रही। राज ठाकरे के बढ़ने पर शिव सेना का सीधा नुक्सान होगा और कांग्रेस का फायदा। तो कोई भी उन्हें रोकने की कोशिश नहीं कर रहा और वे लगातार बदजुबानी कर रहे हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज ने औरंगजेब के समय पर "स्वराज" की स्थापना की थी। उसकी खासियत थी कि  उन्होंने विदेशी तरीकों की जगह देशी तरीकों को तवज्जो दी थी। उनके राज्य को आक्रान्ताओं से मुक्ति दी थी। ठाकरे परिवार अपना आदर्श छत्रपति को घोषित करते हैं और सीधे सीधे ऐसा करके छत्रपति का अपमान करते हैं। छत्रपति की राजनीति का अध्ययन यदि किया जाए तो आप पायेंगे कि  वे हमेशा राष्ट्र प्रेम को तवज्जो देते थे। इसी कारण वे अपने राज्य का विस्तार करते हुए भी अन्याय से दूर रहे। यहाँ तक कि  उन्होंने अपने पुत्र को भी नहीं बक्शा। इसके उलट आजकल के ये तथाकथित नेता मराठी अस्मिता के नाम पर राष्ट्र की अस्मिता का हरण कर रहे हैं। उनके इस कदम का क्या नुक्सान हो सकता है वह ऊपर दिए चाणक्य के वाक्यों में स्पष्ट देखा जा सकता है। 

संगठन ही जीवन है और संगठित रह कर ही हम महान राष्ट्र के रूप में अपना विकास कर सकते हैं। राज ठाकरे शायद यह भूल रहे हैं कि  मुंबई को अंग्रेजों ने बसाया था और एक मछुआरों के गाँव को इतना विशाल रूप यहाँ बसे विभिन्न सम्प्रदायों के लोगों ने दिया क्या मुंबई की कल्पना राजस्थान से आये "बिड़ला " या गुजरात से आये "टाटा" के बिना की जा सकती है। क्या मराठी मानुष बिहार के विस्थापितों के म्हणत काश जीवन का मुकाबला कर पायेंगे। क्या मराठी मानुष का ढोल पीट रहे मनसे के कार्यकर्ता ईंट, पत्थर को उठाकर वहां इमारतें बनाएँगे, या रिक्शा चलाएंगे? यदि नहीं तो बिहार के बिना महाराष्ट्र कहाँ से संभव है। ऐसा नहीं कि  बिहार के केवल मजदूर ही वहां हैं, अपितु वहां पर बिहार के अफसर और बड़े व्यापारी भी हैं। ये सब उस संस्कृति का हिस्सा है जो गर्व से समूचे भारत में सबसे अनूठी संस्कृति होने का सही दंभ भारती है। भारत का संविधान भारत के किसी भी नागरिक को भारत के किसी भी हिस्से में जाकर व्यापार करने की, वहां बसने की आगया देता है। एक घटिया सी पार्टी संविधान से कभी भी ऊपर नहीं हो सकती। यह समझना अति आवश्यक है। इसे केवल बिहार और महाराष्ट्र की समस्या समझकर दरकिनार करने वाले समूचे भारत वासियों को मैं कहना चाहूँगा कि  इनके परिवार का कोई आदमी फिर से झंडा उठा कर क्या पता किसी दिन हरियाणा पंजाब के लोगों को निकालने निकल पड़े इसका मूंह तोड़ जवाब देना जरूरी है। जरूरत है ठाकरे परिवार को जेल के अन्दर दाल दिया जाए ताकि भारत एक रह पाए। इस देश में केवल "जय हिंद" का नारा ही बुलंद रहना चाहिए न की "जय महाराष्ट" या कुछ और। कोई भी राज्य, कोई भी धर्म कोई भी जाति  राष्ट्र से ऊपर नहीं हो सकती। हमारी अनूठी सांस्कृतिक विविधता का ख्याल केवल हम ही रख पायेंगे कोई और नहीं। ठाकरे परिवार का सामाजिक बहिष्कार करना जरूरी है। -रविद्र 

Friday, August 17, 2012

जज्वये-शहीद-राम प्रसाद बिस्मिल

हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर,
हमको भी पाला था माँ-बाप ने दुःख सह-सह कर ,
वक्ते-रुख्सत उन्हें इतना भी न आये कह कर,
गोद में अश्क जो टपकें कभी रुख से बह कर ,
तिफ्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने को !

अपनी किस्मत में अजल ही से सितम रक्खा था,
रंज रक्खा था मेहन रक्खी थी गम रक्खा था ,
किसको परवाह थी और किसमें ये दम रक्खा था,
हमने जब वादी-ए-ग़ुरबत में क़दम रक्खा था ,
दूर तक याद-ए-वतन आई थी समझाने को !

अपना कुछ गम नहीं लेकिन ए ख़याल आता है,
मादरे-हिन्द पे कब तक ये जवाल आता है ,
कौमी-आज़ादी का कब हिन्द पे साल आता है,
कौम अपनी पे तो रह-रह के मलाल आता है ,
मुन्तजिर रहते हैं हम खाक में मिल जाने को  !

नौजवानों! जो तबीयत में तुम्हारी खटके,
याद कर लेना कभी हमको भी भूले भटके ,
आपके अज्वे-वदन होवें जुदा कट-कट के,
और सद-चाक हो माता का कलेजा फटके ,
पर न माथे पे शिकन आये कसम खाने को !

एक परवाने का बहता है लहू नस-नस में,
अब तो खा बैठे हैं चित्तौड़ के गढ़ की कसमें ,
सरफ़रोशी की अदा होती हैं यूँ ही रस्में,
भाई खंजर से गले मिलते हैं सब आपस में ,
बहने तैयार चिताओं से लिपट जाने को !

सर फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं,
पास जो कुछ है वो माता की नजर करते हैं ,
खाना वीरान कहाँ देखिये घर करते हैं!
खुश रहो अहले-वतन! हम तो सफ़र करते हैं ,
जा के आबाद करेंगे किसी वीराने को !

नौजवानो ! यही मौका है उठो खुल खेलो,
खिदमते-कौम में जो आये वला सब झेलो ,
देश के वास्ते सब अपनी जबानी दे दो ,
फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएँ ले लो ,
देखें कौन आता है ये फ़र्ज़ बजा लाने को ?

एक बेरोजगार

आज मानव सड़क पर चला जा रहा था। उसके मन में कई तरह की गुत्थियां चल रही थीं।नौकरी मिल नहीं रही थी, ऊपर से माँ उसकी चिंता में मरी जा रही थी। मानव के तीन भाइयों में वह ही ऐसा था जिसके पास नौकरी नहीं थी, इसलिए उसे घर में कोई बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती थी। पिता जी कुछ चाय बनाने की दुकान  के सहारे काम चला रहे थे।

सड़क पर चलते हजारों हजारों लोगों को देखते हुए उसने सोचा,"मेरे जैसे भी बहुत होंगे इनमें", ऊपर वाला अगर पेट भरने के लिए कुछ नहीं देता तो इस दुनिया में क्यों लेके आता है? "मेरे बस में हों तो मैं तो इस दुनिया को छोड़ दूं और फिर ऊपर वाले से पूछूँगा, गरीब की जिंदगी इतनी सस्ती क्यों है? सरकार को भी देखो, अगर कोई गरीब बम्ब विस्फोट में मर जाए तो जीवन की कीमत है एक लाख। अरे इस से ज्यादा तो एक बाबू रिश्वत दे देता है सौ रुपये की रिश्वत लेते पकडे जाने पर। मेरी जिंदगी की कोई कीमत नहीं है।"

तभी एक मोड़ पर एक धमाका हुआ और मानव की जीवन लीला समाप्त हो गयी। एक घंटे में घोषणा हुई, सरकार मृत लोगों को एक लाख और घायलों को पच्चीस हजार मुआवजा दे रही है। धमाके की जांच होगी और दोषियों को बक्शा नहीं जाएगा। -रविन्द्र सिंह/17 अगस्त 2012.

Thursday, August 16, 2012

पश्चाताप

शहर में चारों और दंगे हो रहे थे और तबाही मची थी, तभी एक छोटी सी कुटिया के पास आकर भीड़ रुकी. मुस्लिम लोगों की भीड़ थी वह; उस भीड़ ने आवाज लगाईं, "जो कोई भी है बाहर निकले, अपना मजहब बताये वरना हम कुटिया को जला देंगे". एक अधेड़ उम्र की बुढ़िया बाहर आई, एक प्रश्न चिह्न लगाते हुए भीड़ के नेता की तरफ देखा,"क्यों रे, तू तो वही है जो  यहाँ कपडे सिलवाने आता था, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है." 
युवक:," तू ये बता तेरा मजहब क्या है, वरना हम जला देंगे."
बुढ़िया::" मेरा सवाल अब भी अधूरा है, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है."
युवक:" तू ऐसे नहीं मानेगी, तेरा इलाज करना पड़ेगा."
बुढ़िया:"मैं अन्दर सोमवार की पूजा कर रही थी, अब तुने जो समझना है समझ ले."
युवक:" जला दो, इस झोंपड़ी को, मार दो बुढ़िया को."

और उस बुढ़िया को भीड़ ने मार दिया..भीड़ अन्दर घुसी, अन्दर एक चिट्ठी रखी थी. उस चिट्ठी में लिखा था," मेरे बेटो, मेरा अल्लाह जानता है, कि मैंने सदा ऊपर वाले के ऊपर विश्वास किया है और उसकी सच्ची इबादत की है. मैं चाहती तो बता सकती थी कि मैं मुसलमान हूँ पर आज मुझे बड़ा दुःख है कि मेरी जैसी माओं ने तुम जैसे बच्चों को जन्म दिया है. इस बात का पश्चाताप करने के लिए मैं अल्लाह-ताला के पास जा रही हूँ. खुदा तुम्हें इबादत सिखाये और बस इतना करे कि तुम जैसे बच्चे मेरे जैसी माओं की कोख से पैदा न हों ..खुदा हाफ़िज़"
भीड़ अवाक एक दूसरे को देखती रही, फिर सन्नाटा पसर गया..
-रविन्द्र सिंह/१६ अगस्त २०१२ 

तय करो किस ओर हो तुम / बल्ली सिंह चीमा

तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो ।।

ख़ुद को पसीने में भिगोना ही नहीं है ज़िन्दगी,
रेंग कर मर-मर कर जीना ही नहीं है ज़िन्दगी,

कुछ करो कि ज़िन्दगी की डोर न कमज़ोर हो ।
तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।।

खोलो आँखें फँस न जाना तुम सुनहरे जाल में,
भेड़िए भी घूमते हैं आदमी की खाल में,
ज़िन्दगी का गीत हो या मौत का कोई शोर हो ।
तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।।

सूट और लंगोटियों के बीच युद्ध होगा ज़रूर,
झोपड़ों और कोठियों के बीच युद्ध होगा ज़रूर,
इससे पहले युद्ध शुरू हो, तय करो किस ओर हो ।
तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।।

तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो ।।

Wednesday, August 15, 2012

आजादी की छुट्टी।

आजादी की छुट्टी पर एक छोटा बच्चा अपनी माँ से पूछ बैठा, "माँ, ये छुट्टी क्यों होती है" माँ परेशान रहती हुई कोई जवाब न दे पायी. इतने में बच्चे ने फिर से पूछा, "माँ जवाब क्यों नहीं देती?" माँ ने सोचा फिर जवाब दिया,"बेटा क्योंकि आज के दिन हमें गुलामी से आजादी मिली थी, इस से पहले हमारे लोग अपनी मर्जी से इस देश में घूम नहीं पाते थे, खा नहीं पाते थे, पढ़ नहीं पाते थे. सरकार विरोध करने वालों को बड़ी सजा देती थी, कभी भी लोगों को बेवजह जेल में डाल देती थी. आजाद होने की ख़ुशी में सरकार हर साल छुट्टी करती है." 
 
बेटे ने कहा," तो माँ अभी भी तो पास वाले अंकल को पुलिस ऐसे ही उठा ले गयी और मेरा दोस्त बता रहा था कि उसको पीटती भी है...बताओ माँ बताओ फिर क्यों छुट्टी होती है."

माँ एक टक आसमान में देखती रही और वह अपने दोस्तों के साथ खेलने चला गया.-रविन्द्र सिंह/15 अगस्त 2012



उस नदी के दो किनारे...


इस किनारे चलते हुए चुन्नी  लाल  ने  बहती नदिया के पार देखा. इस किनारे बड़े बंगले थे, बड़े बाजार थे, उन बाजारों में केवल कुछ हजार लोग थे। वे लोग ऐसे थे जो चलते थे, उड़ते थे, कभी कभी तो कर्म ऐसा करते थे, जिन कर्मों में कोई धर्म नहीं, जिन आदमियों में कोई सच्चा कर्म नहीं,पर उनका उड़ना कभी कम नहीं हुआ, उनका चलना कभी कम नहीं हुआ. इतने में चुन्नी लाल ने नदिया के उस पार देखा। उस पार कुछ भूखे नंगे लोग चल रहे थे, हाथ में सूखी रोटी थामे, गले में पानी के अरमान पाले, न बंगले दिखे, न बाजार दिखे, पर उसे भूखे आदमी कई हजार दिखे,सभी और प्रश्न थे और सभी इस पार देख रहे थे. उस पार लोग इस पार आने का रास्ता ढूंढ रहे थे। बीच में एक छोटा सा कमजोर पुल बन रहा था, पुल ऐसा कि दोनों किनारों को जोड़ता नहीं था, पर काम उसका पुलिया का ही था। इस पार लोग उस पार के लोगों के बारे में भाषण दे रहे थे, उनके लिए काम करने का दावा कर रहे थे। 


व्यथित चुन्नी लाल आगे चल पड़े, आगे चला तो दोनों का नाम दिखा,नदिया का नाम "लोकतंत्र" और पुलिया का नाम "सरकार" था। तभी दोनों छोर कभी मिलते नहीं थे, इस पार के लोग कभी उस पार जाते नहीं थे, उस पार के लोगों को पुलिया इस पार आने नहीं देती थी। नदिया के ये दोनों छोर  न कभी मिले थे, और न कभी मिलेंगे।-रविन्द्र  सिंह/ 15 अगस्त 2012. 

Tuesday, August 14, 2012

एक प्रश्न

जब भारत के अंतिम वायसराय को भारत में ब्रिटेन की लेबर गवर्नमेंट ने भेजा था तो उनके पास एक बहुत मुश्किल लक्ष्य था और वह था भारत को आजाद करना और भारत का होने वाला बंटवारा. हालांकि बड़े बड़े विद्वान् इस बात के पूरी तरह से खिलाफ थे. उनमें से एक थे सर जान स्ट्रेची. उनके हिसाब से भारत में धर्म, मजहब, जाति, भाषा और वेशभूषा की विविधता बहुत अधिक थी और भारत का एक आजाद राष्ट्र के रूप में एक होना असंभव था. वे अक्सर कहा करते थे कि अतीत में भारत में राष्ट्र नाम की कोई चीज नहीं थी और न ही ऐसा होने की भविष्य में कोई संभावना है. उनके अनुसार बंगाली, पंजाबी और तमिल एक दूसरे के साथ एक राष्ट्र का नागरिक होना और एक होना महसूस कर सकेंगे उस बात की कोई संभावना नहीं है. रुडयार्ड किपलिंग के अनुसार भारत के लोग चार हजार साल पुराने हैं, वे इतने पुराने हैं कि वे शासन चलाना सीख ही नहीं सकते. उन्हें कानून और व्यवस्था चाहिए, वह ब्रिटेन दे ही रहा है तो भारत को आजाद क्यों किया जाए? पर आज भारत को आजाद हुए सत्तर साल के आस पास हो गए और दुनिया जानती है कि यह मुल्क चल रहा है. तो फिर विभाजन क्यों हुआ? क्या भारत और पाकिस्तान के लिए पंद्रह अगस्त सही मायने में वह आजादी थी जो वे हमेशा से चाहते थे? ये सवाल कितने सालों से घूम रहे हैं और कोई भी इसका जवाब नहीं दे पा रहा है. सभी इतिहासकार और लेखक इस बारे में मतभेद रखते हैं. भारत की आजादी के दस्तावेज बेशक से प्रमाणिक रूप से मौजूद हों पर अधिकांश भारतवासी इसके बारे में नहीं जानते. जिन्ना के दिमाग की उपज थी यह आजादी या इकबाल के दिमाग की; कोई नहीं जानता. 

गाँधी जी भारत को कभी भी बंटते नहीं देखना चाहते थे तो फिर बंटवारा क्यों हुआ? आज तक भारत का एक वर्ग इस बंटवारे के लिए गाँधी जी को ही जिम्मेदार मानता है. आठ जून, ४७ को माउन्टबेटन ने ब्रिटेन की महारानी को एक पत्र लिखा जिसमें वे लिखते हैं कि जैसे ही गाँधी जी को पता लगा कि ब्रिटेन भारत का विभाजन होगा वे बेहद विचलित हो गए. इतने विचलित उन्हें किसी ने भी नहीं देखा था. उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि भारत का बंटवारा उनकी लाश पर से होगा. पर कांग्रेस और मुस्लिम लीग कि राजनीति और ब्रिटेन का निहित स्वार्थ ऐसा भयानक था कि भारत का विभाजन भी हुआ और विश्व के इतिहास का सबसे बड़ा पलायन भी हुआ. लाखों लोग इधर उधर हुए, लाखों को मार गिराया गया. इस बंटवारे ने इंसान को हैवान बना दिया तो क्यूँ आज का दिन इतना ख़ुशी का है? जिस देश के बंटवारे को रोकने के लिए गाँधी जी कांग्रेस की सदस्यता तक छोड़ने का मन बना चुके थे, जिस गाँधी के बिना कांग्रेस में पत्ता तक नहीं हिलता वह कांग्रेस गोलमेज सम्मलेन में ब्रिटेन के साथ बैठती है और गाँधी जी को बुलाया भी नहीं जाता. भारत के विभाजन के लिए जिस शिमला में जिस समझौते का हस्ताक्षर हुआ था उस समझौते के समय गाँधी जी नाराजगी के कारण वहां गए भी नहीं. आजादी के बाद भी उन्होंने आस नहीं छोड़ी कि भारत फिर से एक हो सकता है. इसके लिए उन्होंने बंटवारे की शर्तों के अनुसार पाकिस्तान को कुछ ५५ करोड़ देने की मांग रखी और उसके बाद दिल्ली से कराची तक पैदल यात्रा की घोषणा की पर उसके बाद क्या हुआ वह इतिहास जानता है. कुछ तथाकथित हिन्दू राष्ट्र की मांग रखने वाले राष्ट्रभक्तों ने उनकी हत्या की साजिश की और नाथू राम ने उनकी हत्या कर दी. 

विश्व के सबसे बड़े पलायन में हिंदुस्तान छोड़ कर गए मुस्लिमों ने यहाँ कुछ उन्नीस लाख एकड़ जमीन छोड़ी और पाकिस्तान से आये हिन्दू वहां कुछ सत्ताईस लाख एकड़ जमीन छोड़ कर आये. भारत में आये हिन्दुओं को रिफ्यूजी और पाकिस्तान में गए मुस्लिमों को वहां मुहाजिर कह कर पुकारा जाता है. आखिर क्यों? तथाकथित हिन्दू राष्ट्र की मांग करने वाले कुछ नेता उन्हें बराबर का दर्जा क्यों नहीं देते. क्या पाकिस्तान उनके अखंड भारत के नक़्शे पर नहीं है? क्या पाकिस्तान से आये हिन्दू किसी मायने में कम हैं? विभाजन से ठीक पहले गाँधी जी ने बंगाल का रूख किया. बंगाल एक साल से हिंसा में जल रहा था. जो बंगाल १९०५ में अंग्रेजों की लाख कोशिश के बावजूद भी अलग नहीं हुआ उसे अंग्रेजों ने बेरहमी से अलग कर दिया. बंगाल के मुसलमान जो दुर्गा पूजा में हिन्दुओं के बराबर हिस्सा लेते थे और रीति रिवाजों में पूरी तरह से एक समान थे वे इतनी बुरी तरह लड़ रहे थे; इस से गाँधी जी व्यथित थे. नोआखली में उनकी पैदल यात्रा और उनके अनशन ने ऐसा जादू किया कि दो दिन में बंगाल की हिंसा रुक गयी. यूनियनिस्ट पार्टी के बैनर तले पंजाब भी बंटवारे से पहले पूरी तरह से संगठित था. इस पार्टी के नेता श्री छोटू राम को हिन्दू बहुल क्षेत्र में छोटू राम और मुस्लिम बहुल क्षेत्र में छोटू खान के नाम से जाना जाता था. जहाँ पूरे जोर लगाने के बावजूद भी मुस्लिम लीग चुनाव नहीं जीत पायी थी, वहां लोग एक दूसरे के खून के प्यासे क्यों हो गए? ये बड़े सवाल हैं जिनका उत्तर आज के दिन हम सब को सोचना होगा. यह आजादी बड़े जतन के बाद आई थी; इसकी कीमत हमारे पूर्वजों ने चुकाई थी हमने नहीं. `

इस बंटवारे से व्यथित होकर फैज अहमद फैज ने एक ग़ज़ल लिखी थी उसका छोटा सा भाग यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ, इसे पढ़ें और सोचे कि हम कहाँ से चले थे, कहाँ रुके हैं और कहाँ जाना है:
"ये दाग दाग उजाला, ये शब-गजीदा सहर,
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं

ये वो सहर तो नहीं जिस की आरजू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों कि आखरी मंजिल
xx xx xx xx xx 
अभी गरानी-ऐ-शब में कमी नहीं आई
नजात-ऐ-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो की वो मंजिल अभी नहीं आई "

यह धरा बहुत पवित्र है. इसे पवित्र रखना हर भारत वासी का कर्तव्य है. भारत कभी भी एक धर्म या एक जाति को नहीं मान सकता. हम पंथनिरपेक्ष हैं, हम एक बहुत गौरवशाली इतिहास समेटे हुए हैं. जरूरत है तो उस इतिहास को सही मायनों में पढने की और अपनी आजादी के नायकों की इज्जत करने की. सोचिये हम क्यों अपने आप को इतना महान बताते हैं जब हमारे हाथ भी रक्त रंजित हैं. क्या हम अपने इतिहास को जानते हैं? भारत के स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर मैं ये प्रश्न हम सब के लिए छोड़ रहा हूँ और इस लेख को बिना किसी अंतिम निर्णय के बंद कर रहा हूँ. यह प्रश्न है, उत्तर नहीं. तो निर्णय हम सबके हाथ में है, केवल मेरे हाथ में नहीं.

Monday, August 13, 2012

रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 3


मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।
‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंग!
दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जन नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।
‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, कहाँ इसमें तू है।
‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।
‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?
‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।
‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होग।
‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!

क्रांति का अर्थ

क्रांति का अर्थ:
क्रांति का आज कल हर जगह मजाक उड़ाया जा रहा है.कभी ये आन्दोलन तो कभी वो आन्दोलन, लगता है जैसे भारतवर्ष में आंदोलनों की बहार आ गयी है.पंद्रह अगस्त क्या आई रामदेव जी ने अगस्त क्रांति का ऐलान कर दिया. कुछ ही दिन बीते थे जब अन्ना हजारे जी एक क्रांति का नेतृत्व कर रहे थे....अब ज़रा जन-मानस को कौन समझाए कि "अगस्त क्रांति" का भारत वर्ष में दूसरा उदाहरण कभी भी पैदा नहीं हो पायेगा. जमीर के बिना क्रांति संभव नहीं है...यदि हमारे विचार पवित्र हैं तो हम अवश्य एक ऐसी क्रांति ला पायेंगे जो समाज को कुछ हद तक बदलने में सहायक हो. पर तब तक हमें प्रयास अवश्य करने होंगे. अब ज़रा क्रांति के नायकों के बारे में बात कर ली जाए. एक बात पूरी तरह से सही है कि क्रांति कभी भी कोई नायक पैदा नहीं कर सकता. इसका उल्टा बिल्कुल सही है, क्रांति हमेशा से नायक पैदा करती रही है...जनता जब व्यवस्था परिवर्तन के लिए उठ खड़ी होती है तो नायक अपने आप मिल जाते हैं. भारत में यह हमेशा एक प्रश्न जनमानस में कोंधता रहता है कि क्या भारत वर्ष को गाँधी जी ने आजादी दिलवाई थी? इसके लिए हमें गाँधी जी को समझना होगा. उन कारणों को समझना होगा जो गाँधी जी को वह बना गए जो वे आज हैं. एक सीधी साधी वकालत करने वाला और सफल बैरिस्टर किस लिए लंगोट पहन कर इतिहास बनाने कूद पडा. इसका उत्तर आपको दक्षिण अफ्रीका में उस समय उठ रहे विद्रोह में मिलेगा जिसका शांति पूर्वक नेतृत्व करके गाँधी जी भारत में एक नायक के रूप में प्रथम विश्वयुद्ध के समय जाने गए. भारत में उसका उत्तर आपको उनके राजनैतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले और उस समय के सैंकड़ों बड़े नेताओं में मिलेगा जिनकी विचारधारा नें गाँधी जी को एक धोती में आने में मजबूर किया. क्या गाँधी जी ने अफ्रीका में विद्रोह पैदा किया या अफ्रीका में विद्रोह से गांधी जी पैदा हुए? क्रान्ति के नायक का उत्तर आपको यहाँ मिलेगा. आज के समय में जनमानस उबल पड़ने का बहाना ढूंढ रहा है. व्यवस्था परिवर्तन के लिए आवाज उठाने वाले हर एक नेता के साथ लाखों लोग खड़े हो जाते हैं. फिर वे नायक घमंड में चूर अपने आपको उस क्रांति का जनक मान लेते हैं जिसको पैदा करने की ताकत एक व्यक्ति में कभी भी नहीं हो सकती. हाँ ये हो सकता है कि वह व्यक्ति अपनी विचार धारा से क्रांति की दिशा को तय कर दे या उस व्यक्ति के द्वारा दिखाए गए रास्ते पर जनमानस को सफलता मिले. जय प्रकाश नारायण के आन्दोलन के समय राष्ट्र कवि दिनकर की कविता"सिंहासन खाली करो कि जनता आती है" क्रांति के सही स्वरुप को दर्शाती है. आवश्यक नहीं कि मैं अपने विरोध को केवल एक रूप में प्रकट करूँ..किसी भी क्रांति में इतनी ताकत अवश्य होती है कि वह सभी विचारधाओं को समाहित करले. गांधी जी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने भगत सिंह या चन्द्र शेखर आजाद! तो फिर क्रांति का केवल एक नायक कैसे हुआ? अठारह सो सत्तावन के विद्रोह को झांसी वाली रानी कि बहादुरी के लिए याद रखा जाता है, क्या उस क्रांति में मंगल पण्डे, तात्यां टोपे, नाना साहिब या उनके जैसे हजारों नायकों का कोई योगदान नहीं था. उस क्रांति ने वे सब नायक पैदा किये थे. 
एक पुराना दोहा है जो क्रांति के नायक को परिभाषित करता है " शूरा सो पह्चनिए, जो लडे दीन के हेत. पुर्जा पुर्जा कट मरे, कबहूँ ना छाडे खेत ". क्या ऐसा शूरवीर केवल एक या दो होते हैं. क्या भगत सिंह को याद करते हुए हम दुर्गा भाभी को भूल जाते हैं या ग़दर पार्टी के नायक करतार सिंह सराभा को भूल जाते हैं. क्या हम पटेल को समझे बिना गाँधी को समझ पायेंगे. क्या इतिहास इस बात का गवाह नहीं है कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के द्वारा उठाया गया छोटा सा कदम जो शायद भारत को आजाद करवाने में भले ही कारागार न साबित हुआ हो, वह कदम इतना महान था कि नेताजी के नाम पर आज भी हजारों लाखों युवा जीने मरने की कसमें खाते हैं. क्रांति के नायक का केवल एक ही धर्म है कि वह अपने स्वार्थ के लिए नहीं राष्ट्र हित में लड़े फिर चाहे उसे सफलता मिले या असफलता, क्रांति असफल नहीं होती.यही ऊपर के दोहे का सार है. क्या आज के हमारे तथाकथित नायक इस परिभाषा में सटीक बैठते हैं? दिनकर की एक और महान रचना के कुछ शब्द उदृत करना चाहूँगा "चिटकाई जिनमें चिंगारी,जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर-लिए बिना गर्दन का मोल। कलम, आज उनकी जय बोल" ये है क्रांति और ये हैं क्रांति के नायक.
क्रांति कभी असफल नहीं होती, जब तक कि वह अपने अंजाम तक न पंहुच पाए. यदि असफल हुई तो वह क्रांति नहीं हो सकती. रूस के शब्दों में कहें "Long Live Revolution" यानी "इन्कलाब जिंदाबाद". किसी भी व्यक्ति विशेष से ऊपर राष्ट्रप्रेम से भरपूर क्रांति के अर्थ को छोटा होते देख कर दुःख होता है. 
पर क्या भारत सीखेगा? क्या इसके नागरिक सीखेंगे यह बात कि मतभेद होना कभी भी क्रांति को कमजोर नहीं करता अपितु उसे सही दिशा देता है क्योंकि कमी पकड़ में आती है.या क्रांति अभी नहीं आई है, ज़रा सोचिये! 
माँ भारती आपके मार्ग को प्रशस्त करे. जय हिंद!

Saturday, July 14, 2012

अग्निपथ / हरिवंश राय बच्चन


वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने हों बड़े,
एक पत्र छांह भी,
मांग मत, मांग मत, मांग मत,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ

तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ

यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु श्वेत रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ...

चलना हमारा काम है / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’


गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूं दर दर खडा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पडा
जब तक न मंजिल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है ।
कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ,
राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है ।
जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध,
इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है ।
इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पडा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पडा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है ।
मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोडा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे?
जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है ।
साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रूकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम,
उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है ।
फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिक्ष्रित गरल,
वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है । साभार "कविताकोश "

Friday, July 13, 2012

नहीं जी रहे अगर देश के लिए / उदयप्रताप सिंह

चाहे जो हो धर्म तुम्हारा चाहे जो वादी हो ।
नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।‍‍‌
जिसके अन्न और पानी का इस काया पर ऋण है

जिस समीर का अतिथि बना यह आवारा जीवन है
जिसकी माटी में खेले, तन दर्पण-सा झलका है
उसी देश के लिए तुम्हारा रक्त नहीं छलका है
तवारीख के न्यायालय में तो तुम प्रतिवादी हो ।

नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
जिसके पर्वत खेत घाटियों में अक्षय क्षमता है

जिसकी नदियों की भी हम पर माँ जैसी ममता है
जिसकी गोद भरी रहती है, माटी सदा सुहागिन
ऐसी स्वर्ग सरीखी धरती पीड़ित या हतभागिन ?
तो चाहे तुम रेशम धारो या पहने खादी हो ।

नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो । 
जिसके लहराते खेतों की मनहर हरियाली से
रंग-बिरंगे फूल सुसज्जित डाली-डाली से
इस भौतिक दुनिया का भार ह्रदय से उतरा है
उसी धरा को अगर किसी मनहूस नज़र से खतरा है
तो दौलत ने चाहे तुमको हर सुविधा लादी हो ।

नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
अगर देश मर गया तो बोलो जीवित कौन रहेगा?

और रहा भी अगर तो उसको जीवित कौन कहेगा?
माँग रही है क़र्ज़ जवानी सौ-सौ सर कट जाएँ
पर दुश्मन के हाथ न माँ के आँचल तक आ पाएँ
जीवन का है अर्थ तभी तक जब तक आज़ादी हो ।

नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।
चाहे हो दक्षिण के प्रहरी या हिमगिरी वासी हो

चाहे राजा रंगमहल के हो या सन्यासी हो
चाहे शीश तुम्हारा झुकता हो मस्जिद के आगे
चाहे मंदिर गुरूद्वारे में भक्ति तुम्हारी जागे
भले विचारों में कितना ही अंतर बुनियादी हो ।

नहीं जी रहे अगर देश के लिए तो अपराधी हो ।

Saturday, February 11, 2012

भारत की आद्र्भूमियाँ(Wetlands) और भारत सरकार की विफलता.


2010 में जब भारत सरकार ने आद्र्भूमियों के संरक्षण और प्रबंधन के लिए नियम बनाए थे तो सबको आशा थी के जयराम रमेश के पर्यावरण मंत्री होने के नाते शायद सरकार कोई ठोस कदम उठाए, पर यह कानून भी अन्य कानूनों की तरह बिना धार की तलवार बना दिया गया. पूरे विरोध के बावजूद भी इसे 2011 में सरकार ने अधिसूचित कर दिया. २ फरवरी को विश्व आद्र्भूमि दिवस पर शायद ही किसी मीडिया हाउस ने या सरकारी संस्थान ने कोई सार्थक प्रयास किया हो. यहाँ हम यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि कानून बनाने में क्या भूल हुई और क्या खतरे हैं भारत की आद्र्भूमियों को. 

नदियों, जलाशय एवं जमीनी पानी की तरह ही आद्र्भूमि भी जलीय चक्र का एक बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. ये न केवल जमीनी पानी को रिचार्ज करने के काम आती हैं, अपितु जैविक विविधता, जल स्वच्छीकरण, पक्षियों के लिए आराम करने की जगह, जलवायु नियंत्रण आदि कई महत्वपूर्ण कार्य करती हैं. इनकी प्रयावरण की महत्ता को देखते हुए, विश्व समुदाय ने मिलकर 1971 में रामसर अभिसमय(Convention) में इन्हें संरक्षित करने का संकल्प किया था एवं ऐसी आद्र्भूमियों को चिह्नित करने का बीड़ा उठाया था जो अंतर्राष्ट्रीय महत्ता रखती हैं. भारत में ऐसी आद्र्भूमियों की संख्या 25 है जो रामसर अभिसमय के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय आद्र्भूमि हैं. 

इनकी महत्ता को देखते हुए केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय आद्र्भूमि संरक्षण प्रोग्राम भी 1985-86 में घोषित किया था, पर वह भी आशाओं के अनुरूप कार्य नहीं कर पाया. 

इन नियमों की सबसे बड़ी कमी यह है कि आद्र्भूमियों के संरक्षण का सारा जिम्मा केंद्र एवं राज्य सरकार के पास है. लगभग सभी आद्र्भूमि; चाहे वे मानव निर्मित हों या प्राकृतिक ; अपने आस पास एक बड़े समाज का भरण पोषण करती हैं. इनमें मछली पकड़ने वाले, खेती करने वाले एवं अन्य छोटे मोटे कार्य करने वाले असंख्य लोग हैं. भारत के कानून में इन लोगों को कोई स्थान नहीं दिया गया है. हालांकि नियम ये सब गतिविधियाँ सरकार के नियंत्रण में चलाने की अनुमति देते हैं परन्तु इन लोगों की सलाह और इन लोगों के मेलजोल के बिना आद्र्भूमियों का संरक्षण हो पायेगा यह मुश्किल लगता है. 

दूसरी महत्त्व पूर्ण कमियाँ इन नियमों में यह हैं कि लोकल मशीनरी जैसे पंचायत, जिला परिषद् को कोई भी रोल नहीं दिया गया है. इनके पूरे सहयोग के बिना, एवं सलाह के बिना आद्र्भूमि संरक्षण संभव हो पायेगा यह मुश्किल है. लोकल मशीनरी न केवल एक महत्त्वपूर्ण रोल अदा कर सकती हैं बल्कि इनकी सहायता से आद्र्भूमि के आस पास रहने वाले जन-मानस को भी शिक्षित किया जा सकता है. यह एक सत्य है कि कानून बनाना कभी भी किसी समस्या का हल नहीं कर पाया है, इसका हल केवल शिक्षा से हो सकता है. जब तक आस पास के लोग इसे समझेंगे नहीं कि आद्र्भूमि महत्वपूर्ण क्यों है, इनका संरक्षण करना संभव कैसे हो पायेगा. यहाँ यह कहना महत्वपूर्ण होगा कि पिछले दस पन्द्रह सालों में भारत अपनी 38% आद्र्भूमियों के एरिया को खो चुका है और इसके विभिन्न कारण हैं. यदि अब भी शिक्षित नहीं किया गया समाज को तो बहुत देर हो जायेगी. 

अगली कमियां इन नियमों में यह है कि नियमों में एक वर्ष के भीतर भीतर आद्र्भूमियों की सफाई का एक असंभव कार्य करने का बीड़ा उठाया गया है पर यह कहीं भी लक्षित नहीं है कि यह कैसे होगा और इसके लिए क्या क्या क्रिया-कलाप किये जायेंगे. जो कार्य भारत में पिछले साठ वर्षों में नहीं हो पाया, वह एक वर्ष में हो जाएगा यह असंभव  लगता है. 

विभिन्न कमियों में से एक कमी यह भी है कि आद्र्भूमि को नुकसान पंहुचाने वाली गति-विधियों को करने वालों को कितनी सजा मिलेगी. क्या यह आवश्यक नहीं था कि एक कठोर सजा का प्रावधान किया जाता, जबकि समस्त भारत में शिकारी, जल प्रदूषण, गैर कानूनी मछली पकड़ने वाले आद्र्भूमियों को एक ऐसा नुक्सान पंहुचा रहे हैं जो कभी भी ठीक नहीं हो पायेगा. अब ज़रा देखिये, कि सरकार की अनुमति से कोई भी गतिविधि की जा सकती है आद्र्भूमियों में; ज़रा सोचिये कि इसका आद्र्भूमि को फायदा होगा या नुक्सान. अच्छे प्रयावरण को संविधान का एक मौलिक अधिकार माना गया है (देखिये चमेली सिंह बनाम उत्तर प्रदेश सरकार, 1996 सुप्रीम कोर्ट). 

आद्र्भूमियों को चिह्नित करने का तरीका भी गलत है. मुख्य नदी धारा को आद्र्भूमि नहीं माना गया है. अधिकतर आद्र्भूमि किसी न किसी जलधारा से ही निर्मित होती हैं. जब तक जलधारा में प्रदूषण एवं अन्य गैरकानूनी गतिविधियों को रोका नहीं जाएगा,तब तक आद्र्भूमि संरक्षित हो जायेंगी यह संदिग्ध है. हरियाणा की एक महत्वपूर्ण आद्र्भूमि है सुल्तान्पुर(गुडगाँव); यह मुख्य रूप से यमुना से आये जल से निर्मित है. यमुना के प्रदूषण ने इस पर इतना गहरा प्रभाव डाला है कि इसका जल काला हो गया है. यही हाल पंजाब की हरिके आद्र्भूमि का है जहां सतलुज और रावी का प्रदूषण एक कठिन परिस्थिति उत्पन्न कर रहा है. 

हमें सोचना चाहिए और समझना भी चाहिए कि आद्र्भूमि प्रयावरण संरक्षण के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण हैं. न केवल सूखे के समय, बल्कि हर मुश्किल परिस्थिति में प्रयावरण के संतुलन को बनाए रखने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है. पर सरकारें कुछ नहीं कर रही हैं और सभी प्रकार की गैर कानूनी गतिविधियाँ जैसे मछली पकड़ना, शिकार, खनन, जल प्रदूषण यहाँ पर धड़ल्ले से चल रहा है. यदि हम आज भी न संभलें तो बहुत देर हो जायेगी और नुक्सान ऐसा होगा जिसकी भरपाई आने वाली सदियाँ भी नहीं कर पाएंगी. 

भारतीय भाषाओँ का विनाश और इंग्लिश.


लार्ड मैकाले ने भारत में ब्रिटिश शिक्षा पद्दति को जब सख्ती से लागू किया था तो उसने ब्रिटिश सरकार को यह विश्वास दिलवाया था कि भारत में अंग्रेजी और अंग्रेजियत का प्रचार एवं प्रसार यदि किया गया तो भारत की संस्कृति धीरे धीरे समाप्त हो जाएगी और भारत की आने वाली पीढियां एक ऐसे समय में पैदा होंगी जब वे सिर्फ अंग्रेजी में सोचेंगे, अंग्रेजी में पढेंगे और अंततः यदि ब्रिटिश वहां न भी रहे तो भी सांस्कृतिक रूप से भारत हमेशा के लिए ब्रिटेन का गुलाम हो जाएगा. इस ही नीति के तहत उस समय प्रचलित हिन्दुस्तानी, उर्दू और हिंदी जैसी प्रमुख भाषाओं की जगह शिक्षा के लिए अंग्रेजी का प्रयोग किया गया. तीस चालीस साल आते आते भारत में एक ऐसी जमात तैयार हो गयी जो हिंदी और हिन्दुस्तानी को अपनी शान के खिलाफ और संस्कृत को मृत भाषा मानती थी. जब भारत आजाद हुआ तो संविधान निर्माताओं के ऊपर नया संकट पैदा हुआ, उन्हें यह तय करना था के भारत की राष्ट्रीय भाषा क्या होगी. महात्मा गाँधी के शब्दों में," जो सभ्यता अपनी पृथकता और भाषा को त्याग देगी वह मृतप्राय हो जायेगी". एक लम्बी चौड़ी बहस के बाद यह तय किया गया कि भारत वर्ष की मुख्य भाषाओं को संविधान में मान्यता दी जायेगी. अंग्रेजी को शासकीय भाषा के रूप में प्रयोग किया जाएगा और 1965 तक उसे भारत से चलता कर दिया जाएगा. पर इस सन तक आते आते भारत कई हिंदी विरोधी दंगों से गुजरा जिनमें से मुख्य दंगे मद्रास में हुए जहां पर लगभग अस्सी विद्यार्थियों ने स्वयं को आग लगा कर मृत्यु के हवाले कर दिया. इन सब का कहना था कि हिंदी नहीं उनकी अपनी भाषा राष्ट्रीय भाषा बने. अतः एक संविधानिक संशोधन लाकर १९६५ को वैकल्पिक साल बना दिया गया. पर हिंदी और अन्य भाषाओं को बचाने के लिए इच्छा शक्ति तब तक समाप्त हो गयी थी क्योंकि एक पूरी पीढ़ी तैयार हो चुकी थी जो अंग्रेजी को अपने जीवन का अभिन्न अंग एवं अन्य भाषाओं को सौतेला समझती थी. विश्व की सबसे समृद्ध सांस्कृतिक विरासत एवं सबसे महान भाषा संस्कृत की जननी इस भारत भूमि पर उसकी अपनी भाषाएँ बेगानी हो गयी. एक कवि की हिंदी की उपेक्षा पर एक दर्दनांक कविता से समझें तो ,"खाट पर पसरी हुई मेहमान अंग्रेजी के साथ, अपने घर में हिंदी की लाचारगी को सोचना" . इस ही दुर्दशा को देख कर भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी कहा था 

,"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन, पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन 

पर न तो अंग्रेजी रुकी और न ही भारतीय भाषाओं का मान मर्दन रुका. क्या आप जानते हैं कि 1961 की जनगणना में 1652 मातृभाषाओं की सूची बनी थी. जो 1971 में घटकर 109 रह गई. 1971 की जनगणना में जिन भाषाओं को बोलने वाले दस हजार से कम लोग थे, सरकार ने उन्हें गिनना भी मुनासिब नहीं समझा और ऐसी सभी भाषा या बोलियों को ‘अन्य’ की एक श्रेणी में डाल दिया. फिर एक के बाद एक भाषा या बोलियां खत्म होती रहीं, लेकिन किसे परवाह है? आज की पीढ़ी हिंदी को इंग्लिश में, इंग्लिश को अन्य भाषाओँ में मिलाती है. क्या आपको नहीं लगता कि जंगल बचाओ आन्दोलन, शेर बचाओ आन्दोलन की तरह भारत वर्ष में भाषा बचाओ आन्दोलन की सख्त आवश्यकता है. यदि प्रयास नहीं किये गए तो भारत की भाषाएँ विनष्ट हो जायेंगी. पर यहाँ सुनने को कौन बैठा है? हमारी पीढ़ी में कितने लोगों को अपनी मातृभाषा में एक से सौ तक की गिनती आती है? पर अंग्रेजी पोएम अवश्य आती होंगी! 

इस व्यथा ने अंतरात्मा को झझकोर दिया है और समझ नहीं आ रहा है कि क्या बोलूं. इतना कर सकता हूँ कि कम से कम मेरे जीवन में हिंदी और भारतीय भाषाएँ हमेशा सर्वोपरि रहेंगी. 

मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने/अज्ञेय

मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने?
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने?
मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले?
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले?
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने?
पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे?
मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने -
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने!
अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है -
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है -
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला हैमैंने विदग्ध हो जान लिया, 
अन्तिम रहस्य पहचान लिया -
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है!
मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँमेरा जीवन ललकार बने, 
असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने!
भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने -
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने