Thursday, December 19, 2013

हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर

आज अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्लाह खान की पुण्य तिथि है। उनकी पुण्य तिथि पर मैं राम प्रसाद बिस्मिल की लिखी कविता जो लहू में उबाल ला देती है; उसे पेश कर रहा हूँ:

हैफ़ हम जिसपे कि तैयार थे मर जाने को
जीते जी हमने छुडाया उसी कशाने को
क्या न था और बहाना कोई तडपाने को
आस्मां क्या यही बाक़ी था सितम ढाने को
लाके ग़ुरबत में जो रक्खा हमें तरसाने को

फिर न गुलशन में हमें लाएगा सैयाद कभी
याद आएगा किसे यह दिल-ए-नाशाद कभी
क्यों सुनेगा तू हमारी कोई फ़रियाद कभी
हम भी इस बाग़ में थे क़ैद से आज़ाद कभी
अब तो काहे को मिलेगी ये हवा खाने को

दिल फ़िदा करते हैं क़ुरबान जिगर करते हैं
पास जो कुछ है वो माता की नज़र करते हैं
खाना वीरान कहां देखिए घर करते हैं
ख़ुश रहो अहल-ए-वतन, हम तो सफ़र करते हैं
जाके आबाद करेंगे किसी वीराने को

न मयस्सर हुआ राहत से कभी मेल हमें
जान पर खेल के भाया न कोई खेल हमें
एक दिन का भी न मंज़ूर हुआ बेल हमें
याद आएगा अलीपुर का बहुत जेल हमें
लोग तो भूल गये होंगे उस अफ़साने को

अंडमान ख़ाक तेरी क्यों न हो दिल में नाज़ा
छूके चरणों को जो पिंगले के हुई है जीशां
मरतबा इतना बढ़े तेरी भी तक़दीर कहां
आते आते जो रहे ‘बॉल तिलक‘ भी मेहमां
‘मांडले' को ही यह एज़ाज़ मिला पाने को

बात तो जब है कि इस बात की ज़िदे ठानें
देश के वास्ते क़ुरबान करें हम जानें
लाख समझाए कोई, उसकी न हरगिज़ मानें
बहते हुए ख़ून में अपना न गरेबां सानें
नासेह, आग लगे इस तेरे समझाने को

अपनी क़िस्मत में अज़ल से ही सितम रक्खा था
रंज रक्खा था, मेहन रक्खा था, ग़म रक्खा था
किसको परवाह थी और किसमे ये दम रक्खा था
हमने जब वादी-ए-ग़ुरबत में क़दम रक्खा था
दूर तक याद-ए-वतन आई थी समझाने को

हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर
हम भी मां बाप के पाले थे, बड़े दुःख सह कर
वक़्त-ए-रुख्ह्सत उन्हें इतना भी न आए कह कर
गोद में आंसू जो टपके कभी रूख़ से बह कर
तिफ्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने को

देश-सेवा का ही बहता है लहू नस-नस में
हम तो खा बैठे हैं चित्तौड के गढ की क़समें
सरफरोशी की अदा होती हैं यों ही रसमें
भाल-ए-खंजर से गले मिलते हैं सब आपस में
बहनो, तैयार चिताओं में हो जल जाने को

अब तो हम डाल चुके अपने गले में झोली
एक होती है फक़ीरों की हमेशा बोली
ख़ून में फाग रचाएगी हमारी टोली
जब से बंगाल में खेले हैं कन्हैया होली
कोई उस दिन से नहीं पूछता बरसाने को

अपना कुछ ग़म नहीं पर हमको ख़याल आता है
मादर-ए-हिंद पर कब तक जवाल आता है
‘हरादयाल‘ आता है ‘यरोप‘ से न ‘लाल‘ आता है
देश के हाल पे रह रह के मलाल आता है
मुन्तजिर रहते हैं हम ख़ाक में मिल जाने को

नौजवानों, जो तबीयत में तुम्हारी ख़टके
याद कर लेना हमें भी कभी भूले-भटके
आप के जुज़वे बदन होवे जुदा कट-कट के
और सद चाक हो माता का कलेजा फटके
पर न माथे पे शिकन आए क़सम खाने को

देखें कब तक ये असिरान-ए-मुसीबत छूटें
मादर-ए-हिंद के कब भाग खुलें या फूटें
‘गाँधी अफ़्रीका की बाज़ारों में सडकें कूटें
और हम चैन से दिन रात बहारें लूटें
क्यों न तरजीह दें इस जीने पे मर जाने को

कोई माता की उम्मीदों पे न डाले पानी
ज़िंदगी भर को हमें भेज के काले पानी
मुंह में जल्लाद हुए जाते हैं छाले पानी
आब-ए-खंजर का पिला करके दुआ ले पानी
भरने क्यों जायें कहीं उम्र के पैमाने को

मैक़दा किसका है ये जाम-ए-सुबू किसका है
वार किसका है जवानों ये गुलू किसका है
जो बहे क़ौम के खातिर वो लहू किसका है
आस्मां सॉफ बता दे तू अदू किसका है
क्यों नये रंग बदलता है तू तड्पाने को

दर्दमन्दों से मुसीबत की हलावत पूछो
मरने वालों से ज़रा लुत्फ़-ए-शहादत पूछो
चश्म-ए-गुस्ताख से कुछ दीद की हसरत पूछो
कुश्त-ए-नाज़ से ठोकर की क़यामत पूछो
सोज़ कहते हैं किसे पूछ लो परवाने को

नौजवानों यही मौक़ा है उठो खुल खेलो
और सर पर जो बला आए ख़ुशी से झेलो
क़ौम के नाम पे सदक़े पे जवानी दे दो
फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएं ले लो
देखें कौन आता है इरशाद बजा लाने को

Wednesday, September 18, 2013

दायी है कौन विपद का

हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?
हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?
यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?
दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।
पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,
हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।
चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।
है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?
किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?
जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,
दैहिक बल को रहता यह देश ग़लत है।
नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,
कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।
यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,
पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।
ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।
जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है;
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।
वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।
तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।
असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,
पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।
तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,
किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।
पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?
तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,
है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।
जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,
शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,
कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।
कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,
सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।
हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,है
कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?
हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !
जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें
मारेगा,अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।
"

Sunday, September 15, 2013

अकबर-बीरबल/लोग एक जैसा भी सोचते हैं

बादशाह अकबर और उनके दरबारी एक प्रश्न पर विचार कर रहे थे जो राज-काज चलाने की दृष्टि से बेहद अहम न था। सभी एक-एक कर अपनी राय दे रहे थे। बादशाह दरबार में बैठे यह महसूस कर रहे थे कि सबकी राय अलग है। उन्हें आश्चर्य हुआ कि सभी एक जैसे क्यों नहीं सोचते !

तब अकबर ने बीरबल से पूछा, ‘‘क्या तुम बता सकते हो कि लोगों की राय आपस में मिलती क्यों नहीं ? सब अलग-अलग क्यों सोचते हैं ?’’

‘‘हमेशा ऐसा नहीं होता, बादशाह सलामत !’’ बीरबल बोला, ‘‘कुछ समस्याएं ऐसी होती हैं जिन पर सभी के विचार समान होते हैं।’’ इसके बाद कुछ और काम निपटा कर दरबार की कार्यवाही समाप्त हो गई। सभी अपने-अपने घरों को लौट चले।

उसी शाम जब बीरबल और अकबर बाग में टहल रहे थे तो बादशाह ने फिर वही राग छेड़ दिया और बीरबल से बहस करने लगे।

तब बीरबल बाग के ही एक कोने की ओर उंगली से संकेत करता हुआ बोला, ‘‘वहां उस पेड़ के निकट एक कुआं है। वहां चलिए, मैं कोशिश करता हूं कि आपको समझा सकूं कि जब कोई समस्या जनता से जुड़ी हो तो सभी एक जैसा ही सोचते हैं। मेरे कहने का मतलब यह है कि बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनको लेकर लोगों के विचार एक जैसे होते हैं।’’

अकबर ने कुछ देर कुंए की ओर घूरा, फिर बोले, ‘‘लेकिन मैं कुछ समझा नहीं, तुम्हारे समझाने का ढंग कुछ अजीब सा है।’’ बादशाह जबकि जानते थे कि बीरबल अपनी बात सिद्ध करने के लिए ऐसे ही प्रयोग करता रहता है।

‘‘सब समझ जाएंगे हुजूर !’’ बीरबल बोला, ‘‘आप शाही फरमान जारी कराएं कि नगर के हर घर से एक लोटा दूध लाकर बाग में स्थित इस कुएं में डाला जाए। दिन पूर्णमासी का होगा। हमारा नगर बहुत बड़ा है, यदि हर घर से एक लोटा दूध इस कुएं में पड़ेगा तो यह दूध से भर जाएगा।’’

बीरबल की यह बात सुन अकबर ठहाका लगाकर हंस पड़े। फिर भी उन्होंने बीरबल के कहेनुसार फरमान जारी कर दिया।

शहर भर में मुनादी करवा दी गई कि आने वाली पूर्णमासी के दिन हर घर से एक लोटा दूध लाकर शाही बाग के कुएं में डाला जाए। जो ऐसा नहीं करेगा उसे सजा मिलेगी।

पूर्णमासी के दिन बाग के बाहर लोगों की कतार लग गई। इस बात का विशेष ध्यान रखा जा रहा था कि हर घर से कोई न कोई वहां जरूर आए। सभी के हाथों में भरे हुए पात्र (बरतन) दिखाई दे रहे थे।

बादशाह अकबर और बीरबल दूर बैठे यह सब देख रहे थे और एक-दूसरे को देख मुस्करा रहे थे। सांझ ढलने से पहले कुएं में दूध डालने का काम पूरा हो गया हर घर से दूध लाकर कुएं में डाला गया था। जब सभी वहां से चले गए तो अकबर व बीरबल ने कुएं के निकट जाकर अंदर झांका। कुआं मुंडेर तक भरा हुआ था। लेकिन यह देख अकबर को बेहद हैरानी हुई कि कुएं में दूध नहीं पानी भरा हुआ था। दूध का तो कहीं नामोनिशान तक न था।

हैरानी भरी निगाहों से अकबर ने बीरबल की ओर देखते हुए पूछा, ‘‘ऐसा क्यों हुआ ? शाही फरमान तो कुएं में दूध डालने का जारी हुआ था, यह पानी कहां से आया ? लोगों ने दूध क्यों नहीं डाला ?’’

बीरबल एक जोरदार ठहाका लगाता हुआ बोला, ‘‘यही तो मैं सिद्ध करना चाहता था हुजूर ! मैंने कहा था आपसे कि बहुत सी ऐसी बातें होती हैं जिस पर लोग एक जैसा सोचते हैं, और यह भी एक ऐसा ही मौका था। लोग कीमती दूध बरबाद करने को तैयार न थे। वे जानते थे कि कुएं में दूध डालना व्यर्थ है। इससे उन्हें कुछ मिलने वाला नहीं था। इसलिए यह सोचकर कि किसी को क्या पता चलेगा, सभी पानी से भरे बरतन ले आए और कुएं में उड़ेल दिए। नतीजा…दूध के बजाय पानी से भर गया कुआं।’’

बीरबल की यह चतुराई देख अकबर ने उसकी पीठ थपथपाई।
बीरबल ने सिद्ध कर दिखाया था कि कभी-कभी लोग एक जैसा भी सोचते हैं।

Sunday, August 18, 2013

भारत

अपना भारत वो भारत है जिसके पीछे संसार चला।  आज बड़े दिन के बाद पूर्व और पश्चिम का यह गीत सुना।  हम कहाँ थे और कहाँ पंहुच गए! भारत अर्थात आर्यावर्त; न केवल इसकी भाषा अपितु इसकी संस्कृति, वेशभूषा, धर्म, मान्यताएं और यहाँ तक कि नागरिक भी एक गंभीर खतरे से रूबरू हैं और इसे कोई भी नहीं समझ पा रहा। मान्यताओं को खंडित करने में यदि किसी को नोबल मिलना चाहिए तो वे हैं भारतवर्ष के नागरिक।  ऐसा नहीं है कि भारत वर्ष में सब बुरा ही बुरा रहा है।  इस महान गीत को सुनते हुए यह ब्लॉग लिख रहा हूँ और मुझे पूरी तरह से एहसास है कि भारत महान था और बन भी सकता है।  जरूरत है तो बस उस इमानदारी की जिसके कारण भारत वर्ष के प्रधानमन्त्री (चाणक्य) एक झोंपड़ी में रह कर स्वयं के तेल से अपने मेहमानों के साथ चर्चा करते थे।  ऐसा सोचना ही बेमानी है कि हम बिलकुल सही थे; पर आवश्यकता है हमें अपने अन्दर उस इमानदारी को विकसित करने का जिस इमानदारी में हम अपनी गलती को स्वीकार कर उसे सही करने का प्रयास करें।

भगवान् करे ये और फले; बढ़ता ही रहे और फूले फले। मेरे जैसे इंसान रहें या न रहे इस राष्ट्र की श्रेष्टता के लिए लोग आगे आते रहेंगे और कोई छोटा सा ही सही पर प्रयास करते रहेंगे। इन प्रयासों से ही हम अपने शीर्ष गौरव को प्राप्त कर पायेंगे।

ज्यादा लिख नहीं पाऊंगा। शुभ रात्रि ; जय हिन्द।

Saturday, August 17, 2013

जियो जियो अय हिंदुस्तान- श्री रामधारी सिंह दिनकर

जाग रहे हम वीर जवान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !
हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल,
हम नवीन भारत के सैनिक, धीर,वीर,गंभीर, अचल ।
हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं ।
हम हैं शान्तिदूत धरणी के, छाँह सभी को देते हैं।
वीर-प्रसू माँ की आँखों के हम नवीन उजियाले हैं
गंगा, यमुना, हिन्द महासागर के हम रखवाले हैं।
तन मन धन तुम पर कुर्बान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !

 

हम सपूत उनके जो नर थे अनल और मधु मिश्रण,
जिसमें नर का तेज प्रखर था, भीतर था नारी का मन !
एक नयन संजीवन जिनका, एक नयन था हालाहल,
जितना कठिन खड्ग था कर में उतना ही अंतर कोमल।
थर-थर तीनों लोक काँपते थे जिनकी ललकारों पर,
स्वर्ग नाचता था रण में जिनकी पवित्र तलवारों पर
हम उन वीरों की सन्तान ,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान !

 

हम शकारि विक्रमादित्य हैं अरिदल को दलनेवाले,
रण में ज़मीं नहीं, दुश्मन की लाशों पर चलनेंवाले।
हम अर्जुन, हम भीम, शान्ति के लिये जगत में जीते हैं
मगर, शत्रु हठ करे अगर तो, लहू वक्ष का पीते हैं।
हम हैं शिवा-प्रताप रोटियाँ भले घास की खाएंगे,
मगर, किसी ज़ुल्मी के आगे मस्तक नहीं झुकायेंगे।
देंगे जान , नहीं ईमान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान।

 

जियो, जियो अय देश! कि पहरे पर ही जगे हुए हैं हम।
वन, पर्वत, हर तरफ़ चौकसी में ही लगे हुए हैं हम।
हिन्द-सिन्धु की कसम, कौन इस पर जहाज ला सकता ।
सरहद के भीतर कोई दुश्मन कैसे आ सकता है ?
पर की हम कुछ नहीं चाहते, अपनी किन्तु बचायेंगे,
जिसकी उँगली उठी उसे हम यमपुर को पहुँचायेंगे।
हम प्रहरी यमराज समान
जियो जियो अय हिन्दुस्तान!

Friday, August 16, 2013

धर्म समन्वय के ऊपर स्वामी विवेकानंद जी के कुछ विचार

 "संसार के लिए यह बड़े ही दुर्भाग्य की  बात होगी यदि सभी मनुष्य एक ही धर्म, उपासना की एक ही पद्यति और नैतिकता के एक ही आदर्श को स्वीकार कर लें।  इससे सभी धार्मिक और आद्यात्मिक उन्नति को मृत्यु जैसा आघात पंहुचेगा।  "

दूसरे धर्म या मत के लिए हमें केवल सहनशीलता नहीं दिखानी है; बल्कि प्रत्यक्ष रूप से उन्हें स्वीकार करना होगा; और यही सत्य सब धर्मों की नींव है। "

"साधुता, पवित्रता और सेवा किसी सम्प्रदाय विशेष की संपत्ति नहीं है; और प्रत्येक धर्म ने श्रेष्ट तथा अतिशय उन्नत चरित्र के नर-नारियों को जन्म दिया है।  इन प्रत्यक्ष प्रमाणों के बावजूद भी यदि कोई ऐसा स्वप्न देखे कि अन्य सारे धर्म नष्ट हो जाएँ और केवल उसी का धर्म जीवित रहेगा, तो मैं अपने हृदय के अन्तस्तल से उस पर दया करता हूँ और उसे स्पष्ट बता देना चाहता हूँ कि सारे प्रतिरोधों के बावजूद, शीघ्र ही प्रत्येक धर्म की पताका पर यह लिखा होगा-संघर्ष नहीं सहयोग; पर भाव-विनाश नहीं पर भाव ग्रहण, मतभेद और कलह नहीं, समन्वय और शान्ति। "

***

कल कुछ और विचार प्रस्तुत करूंगा।

Tuesday, August 13, 2013

विडम्बना

यतो धर्मस्ततो जयः, अर्थात जहाँ धर्म है वहां जय है। हिन्दू धर्म का यह महान सन्देश कहीं गुम हो गया लगता है।  आज गोस्वामी तुलसीदास जी की जयंती है, उन्होंने अपने महान काव्य में कहा था," परहित सरसी धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई" अर्थात दूसरे के हित से बड़ा धर्म नहीं है एवं दूसरे को पीड़ा देने से अधिक अधर्म का कोई कार्य नहीं है।  जब मैं भारतवर्ष के पिछले तीस  देखता हूँ तो वह सम्पूर्ण रूप से अधर्म से भरे हैं।  किसी भी धर्म ने अन्य धर्म को पीड़ा देने से गुरेज नहीं किया; हालांकि यह अवश्य सत्य है कि बहुसंख्यकों ने अल्पसंख्यकों का अधिकतर जगह पर ध्यान रखा है (एक दो अपवादों को छोड़ कर ) पर फिर भी भारतवर्ष ने अपने एक विशेष चरित्र की हत्या कर दी है; वह है हर स्थिति एवं हर परिस्थिति में अपने धर्म का पालन। अधर्म ने यहाँ इस हद तक घर कर लिया है कि सभी मन्त्र, श्लोक, मान्यताएं एवं दोहे फेल हो गए लगते हैं।  चाहे साम्प्रदायिकता हो या धर्मनिरपेक्षता हो; हर जगह हम दोहरा चरित्र रखते हैं।

Monday, June 24, 2013

विचार

कोई भी धर्म हिंसा, घृणा, वैर नहीं फैला सकता। यदि वह ऐसा करता है तो उस धर्म का प्रचारक पाखंडी एवं झूठा है। अब यह सोचने वाली बात है कि मैंने धर्म प्रचारकों को पाखंडी कहा; धर्म को नहीं।
धर्म मेरे किसी विचार से एवं किसी एक मनुष्य से कहीं महान हैं। धर्म चाहे कोई भी हो, पृथ्वी के किसी भी कोने में क्यों न हो, सच्चा होगा, धर्म को झूठा बताने वाला गलत हो सकता है पर धर्म नहीं। धर्म किसी भी व्यक्ति की आस्था का केंद्र है; उसका विशवास है; उसका चरित्र है; उसकी नैतिकता है। नैतिक जीवन जीने वाला किसी एक पाखंडी साधू से अधिक धार्मिक है जो जाप तो हर रोज करता है पर हृदय में श्रद्धा नहीं रखता।
संस्कृत में एक श्लोक है"यतो धर्मस्ततो जयः" अर्थात जहाँ धर्म है; वहीँ विजय है। मैं अपने आपको एक हिन्दू धर्म के साथ जुडा मानकर उस ईश का अपमान क्यों करून जिसने हमें उत्पन्न किया है; यदि मुझे मुस्लिम धर्म समर्पण करना सिखाता है; इसाई धर्म सामान्य नैतिकता सिखाता है; सिख धर्म सेवा सिखाता है तो केवल हिन्दू धर्म से शिक्षा ग्रहण करके मैं उन धर्मात्माओं का अपमान नहीं कर सकता जिन्होंने इन महान विचारधाराओं को प्रतिपादित किया है। हालांकि यह भी उतना ही सच है की वे लोग किसी भी मान या अपमान से परे हैं और  महान हैं कि मेरी प्रशंसा या मेरी आलोचना उन्हें छू भी न पाएगी।
कल कुछ और लिखूंगा; तब तक के लिए शुभ रात्रि-रविन्द्र

Friday, May 17, 2013

वो जिसके हाथ में छाले हैं

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बँगले में आई है

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्‍नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्‍क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है/अदम गोंडवी

मेरा एक जीवन है

 मेरा एक जीवन है
उसमें मेरे प्रिय हैं, मेरे हितैषी हैं, मेरे गुरुजन हैं
उसमें कोई मेरा अनन्यतम भी है

पर मेरा एक और जीवन है
जिसमें मैं अकेला हूँ
जिस नगर के गलियारों, फुटपाथ, मैदानों में घूमा हूँ
हँसा खेला हूँ
उसके अनेक हैं नागर, सेठ, म्युनिस्पलम कमिश्नर, नेता
और सैलानी, शतरंजबाज और आवारे
पर मैं इस हाहाहूती नगरी में अकेला हूँ

देह पर जो लता-सी लिपटी
आँखों में जिसने कामना से निहारा
दुख में जो साथ आए
अपने वक्त पर जिन्होंने पुकारा
जिनके विश्वास पर वचन दिए, पालन किया
जिनका अंतरंग हो कर उनके किसी भी क्षण में मैं जिया

वे सब सुहृद हैं, सर्वत्र हैं, सर्वदा हैं
पर मैं अकेला हूँ

सारे संसार में फैल जाएगा एक दिन मेरा संसार
सभी मुझे करेंगे - दो चार को छोड़ - कभी न कभी प्यार
मेरे सृजन, कर्म-कर्तव्य, मेरे आश्वासन, मेरी स्थापनाएँ
और मेरे उपार्जन, दान-व्यय, मेरे उधार
एक दिन मेरे जीवन को छा लेंगे - ये मेरे महत्व
डूब जाएगा तंत्रीनाद कवित्त रस में, राग में रंग में
मेरा यह ममत्व
जिससे मैं जीवित हूँ
मुझ परितप्त को तब आ कर वरेगी मृत्यु - मैं प्रतिकृत हूँ

पर मैं फिर भी जियुँगा
इसी नगरी में रहूँगा
रूखी रोटी खाउँगा और ठंड़ा पानी पियूँगा
क्योंकि मेरा एक और जीवन है और उसमें मैं अकेला हूँ/रघुवीर सहाय

Sunday, March 17, 2013

"एक और नया भारत कहता है कि पाश्चात्य भाव, भाषा, खान-पान और वेश भूषा का अवलंबन करने से ही हम लोग पाश्चात्य शक्तियों की भांति शक्तिमान हो सकेंगे। दूसरी और प्राचीन भारत कहता है कि मूर्ख!नक़ल करने से कहीं दूसरों का भाव अपना हुआ है? बिना उपार्जन किये कोई वास्तु अपनी नहीं होती। क्या सिंह की खाल पहन कर गधा कहीं सिंह हुआ है?
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एक कम बुद्धि वाला लड़का श्री राम कृष्ण देव के सामने सदा शास्त्रों की निंदा किया करता था। उसने एक बार गीता की बड़ी प्रशंसा की। इस पर शिर राम कृष्ण देव ने कहा, "किसी अंग्रेज विद्वान ने गीता की प्रशंसा की होगी। इसीलिए यह भी उसकी प्रशंसा कर रहा है।"
ऐ भारत! यही विकट भय का कारण है। हम लोगों में पाश्चात्य जातियों की नक़ल करने की इच्छा ऐसी प्रबल होती जाती है कि भले बुरे का निश्चय अब विचार-बुद्धि , शास्त्र या हिताहित ज्ञान से नहीं किया जाता। गोर लोग जिस भाव की प्रशंसा करें, वाही अच्छा है और वे जिसकी निंदा करें , वाही बुरा!अफ़सोस!इससे बढ़कर मूर्खता का परिचय और क्या होगा?
पाश्चात्य स्त्रियाँ स्वाधीन भाव से फिरती हैं, इसलिए वही चाल अच्छी है; वे अपने लिए वर आप चुन लेती हैं, इसलिए वही उन्नति का उच्चतम सोपान है; पश्चातीय पुरुष हम लोगों की वेश-भूषा, खान-पान को घृणा की दृष्टि से देखते हैं, इसलिए हमारी ये चीजें बहुत बहुत बुरी हैं; पाश्चात्य लोग मूर्ती  को   कहते हैं,तो वह भी बड़ी ही खराब होगी, क्यों न हो?

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यहाँ पर हम इस बात का विचार नहीं करते कि ये प्रथाएं चलनी चाहिए या रुकनी चाहिए। परन्तु यदि पाश्चात्य लोगों की घृणा दृष्टि के कारण ही हमारे रीति रिवाज बुरे साबित होतें हों तो उसका प्रतिवाद अवश्य होना चाहिए।"
स्वामी विवेकानंद जी के लेखों में से उपरोक्त अमूल्य वचन आज के जमाने पर किस तरह से लागू होते हैं; ज़रा सोचिये।

Saturday, March 16, 2013

"यथा खरः चन्दन, भारवाही भारस्य वेत्ता न तु चन्दनस्य।" अर्थात चन्दन की लकडियाँ ढोने वाला गधा, उसके मूल्य को नहीं केवल उसके बोझ को समझ सकता है।
किसी अज्ञानी को कितना भी शिक्षा दे दीजिये, वह कभी भी ऋषि नहीं बन पायेगा। हमारी शिक्षा पद्धति चन्दन की लकडिया तो ढोना सिखाती है पर  मूल्य कहाँ बताती है।
स्वामी विवेकानंद जी के शब्दों में "जिस शिक्षा के द्वारा हम अपना जीवन गढ़ सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र गठित कर सकें और विचारों का सामंजस्य कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है।"
ज़रा सोचिये की क्या हमारा समाज ऐसी शिक्षा दे पा रहा है। यदि नहीं तो कैसे हम अपने समाज को विकसित मानने की भूल कर रहे हैं?

Friday, March 15, 2013

स्वतंत्रता और परतंत्रता में जो फर्क है वह है "स्व" एवं "पर" का। यदि आप स्वयं अपने राष्ट्र को अपना कर्तव्य, अपना सब कुछ मानते हैं, उसकी उन्नति में अपना योगदान देते हैं, तभी तो आप स्वतंत्र हुए। केवल आजादी ही इसका मतलब कैसे हुआ? यदि आपके मन माफिक, आपके कर्म से और आपके कर्तव्य से यह समाज नहीं चल रहा, यह राष्ट्र नहीं चल रहा तो आप परतंत्र हैं। आजादी का झूठा बोध अपने अन्दर न लेकर आयें। हर अधिकार एक कर्तव्य के साथ आता है; यदि कर्तव्य निर्वहन में हम कुछ नहीं कर रहे तो अधिकार में यथेच्छ कैसे मिलेगा। आपकी आजादी एक दिवा स्वप्न है। जब तक भारत का हर एक नागरिक कर्तव्य निर्वाह करने के लिए आगे नहीं बढेगा; तब तक वह परतंत्र है स्वतंत्र नहीं।
बड़ा असभ्य महसूस करता हूँ मैं भारत में रहने में जब सुबह सुबह अखबारों में खबर पढता हूँ कि एक समाज की, एक धर्म की, एक जाति की अनदेखी हो रही है और वह समाज आन्दोलन करेगा। भारत का संविधान सबको बराबरी का अधिकार प्रदान करता है फिर भी न तो सरकारें संजीदा हैं और न ही समाज संजीदा है। हम बराबरी पर तभी रख पायेंगे किसी को यदि यह समाज एक समाज कहलाएगा। अनेकता की आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता है तो केवल एकता की। जब हम भूल जायेंगे कि हम किसी फलां जाति /धर्म के सदस्य हैं और भारत के नागरिक मानेगे स्वयं को तभी संविधान की सत्ता इस राष्ट्र में स्थापित होगी। वरना यह सब दिवा स्वप्न के अलावा कुछ नहीं है।

Saturday, January 5, 2013

अब तो पथ यही है| /दुष्यंत कुमार


जिंदगी ने कर लिया स्वीकार,
अब तो पथ यही है|
अब उभरते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है,
एक हलका सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है,
यह शिला पिघले न पिघले, रास्ता नम हो चला है,
क्यों करूँ आकाश की मनुहार ,
अब तो पथ यही है |
क्या भरोसा, कांच का घट है, किसी दिन फूट जाए,
एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए,
एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए,
आज हर नक्षत्र है अनुदार,
अब तो पथ यही है| 
यह लड़ाई, जो की अपने आप से मैंने लड़ी है,
यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पढ़ी है,
यह पहाड़ी पाँव क्या चढ़ते, इरादों ने चढ़ी है,
कल दरीचे ही बनेंगे द्वार,
अब तो पथ यही है |