Friday, November 16, 2012

ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल

दुष्यंत कुमार की पुस्तक "साए में धूप " एक अपाहिज समाज की व्यथा है जो भारत के आजाद होने के बाद इसके नेताओं ने इसे बना दिया है। एक ग़ज़ल नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ कृपया ध्यान से पढ़ें और सोचें:

ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल, लोगो 

-देखिये यहाँ पर दुष्यंत जी खोखले समाज की खोखली तरक्की पर करारा प्रहार कर रहे हैं और कह रहे हैं कि जो तरक्की की रौशनी भारतवर्ष में व्याप्त है ; वह एक धोखा है और जल में झलकते हुए महल की तरह है जो दीखता तो है पर असल में होता नहीं है और उसे महसूस भी नहीं कर सकते हैं। भारत वर्ष में गरीबी और भुखमरी आज भी व्याप्त है तो भारत के तरक्की करने का सवाल ही नहीं होता। जब तक निम्नतम वर्ग का नागरिक इस तरक्की का भागीदार न हो तब तक यह एक छल मात्र है।

दरख़्त हैं तो परिन्दे नज़र नहीं आते
जो मुस्तहक़ हैं वही हक़ से बेदख़ल, लोगो 

-पेड़ हैं तो उस पर परिंदे नहीं नजर आते, जो हकदार हैं वही हैं हक़ से बेदखल। दुष्यंत जी की व्यथा यहाँ और भी गंभीर हो जाती है और वे सीधे सीधे कहते हैं कि जिन परिंदों का दरख़्त कभी घर हुआ करता था; वे परिंदे अब नजर नहीं आते और जो हकदार हैं उन्हें हक़ से वंचित होना पद रहा है। किसान को और मजदूर को ले लीजिये।  किसान जो समूचे राष्ट्र को अन्न पैदा करके देता है; वह भूखा सोता है और मजदूर जिसकी मेहनत से एक इमारत खड़ी होती है वह बिना छत के सोता है। तरक्की यहाँ बेमानी है।

वो घर में मेज़ पे कोहनी टिकाये बैठी है
थमी हुई है वहीं उम्र आजकल ,लोगो 

किसी भी क़ौम की तारीख़ के उजाले में
तुम्हारे दिन हैं किसी रात की नकल ,लोगो 
-
देखिये यहाँ दुष्यंत जी की व्यथा, वे कह रहे हैं कि आपकी तरक्की तो किसी की तरक्की की नक़ल मात्र है।

तमाम रात रहा महव-ए-ख़्वाब दीवाना
किसी की नींद में पड़ता रहा ख़लल, लोगो 

-कोई तो तमाम रात स्वप्न में खोया रहा और कोई अपनी बेकारी के कारण सो ही नहीं पाया। हमारी तरक्की की मिसाल एक पूरी तरह से असमान समाज की संरचना है। जहाँ अमीर और अमीर हो रहा है वहीँ गरीब और गरीब हो रहा है। भारतवर्ष में व्याप्त यह सामाजिक ताना बाना कहीं से भी तरक्की की मिसाल कायम नहीं करता। 


ज़रूर वो भी किसी रास्ते से गुज़रे हैं
हर आदमी मुझे लगता है हम शकल, लोगो 

दिखे जो पाँव के ताज़ा निशान सहरा में
तो याद आए हैं तालाब के कँवल, लोगो 

वे कह रहे हैं ग़ज़लगो नहीं रहे शायर
मैं सुन रहा हूँ हर इक सिम्त से ग़ज़ल, लोगो।

-इन महान रचनाओं में भारत के समाज की सही रचना सामने आती है जो इस भारत से बिलकुल परे है जो सरकारें या मीडिया सच में हम सबको दिखाते हैं। 

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