Saturday, December 24, 2011

एक तिनका

मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ,
एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ,
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।

मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा,
लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे,
ऐंठ बेचारी दबे पॉंवों भागने लगी।

जब किसी ढब से निकल तिनका गया,
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा,
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।

कवि श्री अयोध्या सिंह उपाध्याय की यह कविता नूतन को सम्मान देने की शिक्षा देती है. हम सब अक्सर उसे सम्मान देते हैं जो बड़ा है, नूतन को सम्मान देना तथा उसे उचित स्थान देना हमारा कर्तव्य है, तभी हम पूर्णता की और बढ़ सकते हैं.

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