गुरु नानक देव जी के जन्मदिन पर अल्लामा इकबाल जी के द्वारा लिखी गयी एक ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह ग़ज़ल उन्होंने गुरु नानक देव जी के लिए ही लिखी थी।
कौम ने पैग़ाम-ए-गौतम की ज़रा परवा न की
क़द्र पहचानी न अपने गौहर-ए-यक-दाना की
आह बदकिस्मत रहे, आवाज़-ए-हक़ से बेख़बर
ग़ाफ़िल अपने फल की शीरीनी से होता है शजर
आशकार उसने किया जो ज़िन्दगी का राज़ था
हिन्द को लेकिन खयाली फलसफे पे नाज़ था
शमा-ए-हक़ से जो मुनव्वर हो ये वोह महफ़िल न थी
बारिश-ए-रहमत हुई, लेकिन ज़मीं काबिल न थी
आह शूद्र के लिए हिंदोस्तां ग़मखाना है
दर्द-ए-इंसानी से इस बस्ती का दिल बेगाना है
बरहमन सरशार है अब तक मय-ए-पिन्दार में
शमा-ए-गौतम जल रही है महफ़िल-ए-अग्यार में
बुतकदा फिर बाद मुद्दत के मगर रोशन हुआ
नूर-ए-इब्राहीम से आज़र का घर रोशन हुआ
फिर उठी आखिर सदा तौहीद की पंजाब से
हिन्द को एक मर्द-ए-कामिल* ने जगाया ख़्वाब से
मर्द-ए-कामिल= महान इंसान
इस सुन्दर ग़ज़ल को मैंने एक बढ़िया ब्लॉग से प्राप्त किया है। आप सब को सतगुरु नानक देव जी के प्रकाशोत्सव पर बधाई।
कौम ने पैग़ाम-ए-गौतम की ज़रा परवा न की
क़द्र पहचानी न अपने गौहर-ए-यक-दाना की
आह बदकिस्मत रहे, आवाज़-ए-हक़ से बेख़बर
ग़ाफ़िल अपने फल की शीरीनी से होता है शजर
आशकार उसने किया जो ज़िन्दगी का राज़ था
हिन्द को लेकिन खयाली फलसफे पे नाज़ था
शमा-ए-हक़ से जो मुनव्वर हो ये वोह महफ़िल न थी
बारिश-ए-रहमत हुई, लेकिन ज़मीं काबिल न थी
आह शूद्र के लिए हिंदोस्तां ग़मखाना है
दर्द-ए-इंसानी से इस बस्ती का दिल बेगाना है
बरहमन सरशार है अब तक मय-ए-पिन्दार में
शमा-ए-गौतम जल रही है महफ़िल-ए-अग्यार में
बुतकदा फिर बाद मुद्दत के मगर रोशन हुआ
नूर-ए-इब्राहीम से आज़र का घर रोशन हुआ
फिर उठी आखिर सदा तौहीद की पंजाब से
हिन्द को एक मर्द-ए-कामिल* ने जगाया ख़्वाब से
मर्द-ए-कामिल= महान इंसान
इस सुन्दर ग़ज़ल को मैंने एक बढ़िया ब्लॉग से प्राप्त किया है। आप सब को सतगुरु नानक देव जी के प्रकाशोत्सव पर बधाई।
very good blog
ReplyDeleteplease disable word verification so people can easily post their comments