फेसबुक से कुछ समय के लिए छुट्टी ली है तो सोचा है कि कुछ अपने लिए लिखूं और कुछ पढूं। इस ही कड़ी में मैंने एक ब्लॉग पढ़ते हुए मनु स्मृति का एक श्लोक ढूँढा जो शायद मेरी कई दुविधाओं का हल हो सकता है। मैं हमेशा से इच्छुक रहा हूँ यह जानने का कि धर्म क्या है और क्यों इसे धर्म कहते हैं। एक श्लोक में धर्म क्या है इसका सार है, यह महत्त्वपूर्ण क्यों है यह जानने में बहुत समय चाहिए। अपनी सीमित सी बुद्धि से जो सोच पाऊंगा वह लिखूंगा।
धर्म का प्रथम लक्षण है धृति: अर्थात धैर्य। हर हाल में और हर परिस्थिति में धैर्य रखना धर्म का पहला लक्षण है। सुख दुःख, लाभ हानि, अच्छा और बुरा; हर अवस्था में धैर्य मनाये रखना किसी धार्मिक व्यक्ति का कार्य है।
धर्म का दूसरा लक्षण है क्षमा। हर प्राणी के ऊपर दया दृष्टि रखना।
धर्म का तीसरा लक्षण है दम अर्थात दमन। अपनी इच्छाओं को और अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना दमन है।
धर्म का चौथा लक्षण है अस्तेय अर्थात दुसरे के धन के ऊपर नजर न रखना, चोरी न करना।
धर्म का पांचवां लक्षण है शौच अर्थात पवित्रता। अपने तन को पवित्र रखना भी एक धर्म का लक्षण है।
धर्म का छटा लक्षण है इन्द्री निग्रह। अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना धर्म का लक्षण है।
धर्म का सातवाँ लक्षण है धी अर्थात बुद्धि। बुद्धिमान व्यक्ति भले ही आस्तिक हो या नास्तिक धर्म के इस लक्षण पर खरा उतरता है।
धर्म का आठवां लक्षण है विद्या। यह किसी भी प्रकार की हो सकती है। बिना विद्या संसारमें कुछ प्राप्त नहीं हो सकता। यह लौकिक और अलौकिक दोनों हो सकती है।
धर्म का नौवां लक्षण है सत्य। सत्य अपने आप में इतना बड़ा और पवित्र है कि किसी भी धर्म से ऊपर है। पर हम इसे अपने धर्म का भाग मानते हैं।
धर्म का दसवां और अंतिम लक्षण है अक्रोध। क्रोध किसी भी कार्य को बिगाड़ने की क्षमता रखता है अतः इसे अधर्म के साथ माना गया है।
इस अति पवित्र धर्म को आजकल कितना छोटा मान लिया गया है उसको हम सब देख सकते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास एक जगह कहते हैं कि "परहित सरसी धर्म नहीं भाई" अर्थात किसी और की सेवा से ऊपर कोई भी धर्म नहीं है। इसे हम ग्यारहवां लक्षण मान सकते हैं।
कल चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।
रविन्द्र
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रिय निग्रहः ।
धीः विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।।
धर्म का प्रथम लक्षण है धृति: अर्थात धैर्य। हर हाल में और हर परिस्थिति में धैर्य रखना धर्म का पहला लक्षण है। सुख दुःख, लाभ हानि, अच्छा और बुरा; हर अवस्था में धैर्य मनाये रखना किसी धार्मिक व्यक्ति का कार्य है।
धर्म का दूसरा लक्षण है क्षमा। हर प्राणी के ऊपर दया दृष्टि रखना।
धर्म का तीसरा लक्षण है दम अर्थात दमन। अपनी इच्छाओं को और अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना दमन है।
धर्म का चौथा लक्षण है अस्तेय अर्थात दुसरे के धन के ऊपर नजर न रखना, चोरी न करना।
धर्म का पांचवां लक्षण है शौच अर्थात पवित्रता। अपने तन को पवित्र रखना भी एक धर्म का लक्षण है।
धर्म का छटा लक्षण है इन्द्री निग्रह। अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना धर्म का लक्षण है।
धर्म का सातवाँ लक्षण है धी अर्थात बुद्धि। बुद्धिमान व्यक्ति भले ही आस्तिक हो या नास्तिक धर्म के इस लक्षण पर खरा उतरता है।
धर्म का आठवां लक्षण है विद्या। यह किसी भी प्रकार की हो सकती है। बिना विद्या संसारमें कुछ प्राप्त नहीं हो सकता। यह लौकिक और अलौकिक दोनों हो सकती है।
धर्म का नौवां लक्षण है सत्य। सत्य अपने आप में इतना बड़ा और पवित्र है कि किसी भी धर्म से ऊपर है। पर हम इसे अपने धर्म का भाग मानते हैं।
धर्म का दसवां और अंतिम लक्षण है अक्रोध। क्रोध किसी भी कार्य को बिगाड़ने की क्षमता रखता है अतः इसे अधर्म के साथ माना गया है।
इस अति पवित्र धर्म को आजकल कितना छोटा मान लिया गया है उसको हम सब देख सकते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास एक जगह कहते हैं कि "परहित सरसी धर्म नहीं भाई" अर्थात किसी और की सेवा से ऊपर कोई भी धर्म नहीं है। इसे हम ग्यारहवां लक्षण मान सकते हैं।
कल चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।
रविन्द्र
Thanks for this post. And, please disable word verification.
ReplyDeleteNeeraj Ji, If I disable the same, false posts will come. Please suggest some method for the same.
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