"यथा खरः चन्दन, भारवाही भारस्य वेत्ता न तु
चन्दनस्य।" अर्थात चन्दन की लकडियाँ ढोने वाला गधा, उसके मूल्य को नहीं
केवल उसके बोझ को समझ सकता है।
किसी
अज्ञानी को कितना भी शिक्षा दे दीजिये, वह कभी भी ऋषि नहीं बन पायेगा।
हमारी शिक्षा पद्धति चन्दन की लकडिया तो ढोना सिखाती है पर मूल्य कहाँ
बताती है।
स्वामी विवेकानंद जी के शब्दों में "जिस शिक्षा के
द्वारा हम अपना जीवन गढ़ सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र गठित कर सकें और
विचारों का सामंजस्य कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है।"
ज़रा सोचिये की क्या हमारा समाज ऐसी शिक्षा दे पा रहा है। यदि नहीं तो कैसे हम अपने समाज को विकसित मानने की भूल कर रहे हैं?
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