Tuesday, July 22, 2014

अनजान राह का तन्हा राही

तन्हा राही राह चलता जाएगा; अब तो जो भी होगा देखा जाएगा। नेताजी सुभाष चन्द्र बॉस के जीवन चरित्र पर बनी एक फिल्म के गीत के उपरोक्त बोल एक ऐसे बाग़ी के हैं जिसने स्वयं की राह चुनी एवं उस राह पर चल दिए। इन्हें न मंजिल की फ़िक्र थी और न ही रास्ते की। इन्हें यह भी फ़िक्र नहीं थी कि कोई इनके साथ था अथवा नहीं था। जीवन में बहुत सा ले आये और जीवन में बहुत सा पीछे छोड़ आये। पीछे मुड़ कर न देखा। बस चले गए और चले गए। समाज कहाँ इनको फ़िक्र नहीं ; व्यक्ति विशेष कहाँ इन्हें पता नहीं। राष्ट्र क्या ; उनकी सीमाएं क्या। बस परम सत्य यह है कि वे राही हैं और उनकी राह अबूझ है ;उनका तरीका अबूझ है और उसे कोई समझ न पाया है। अन्धकार कहाँ समझ पाया कि उसके बाहर रौशनी की किरण होती है। रौशनी कहाँ समझ पायी कि उसके पीछे अन्धकार छिपा है।

इस अबूझ राह पर एक और अनजान राही चल पड़ा है और यह गीत गुनगुना रहा है। फैज़ की शायरी पढ़ रहा है ,"चले चलो के मंजिल अभी नहीं आई। "

चले चलो के मंजिल अभी नहीं आई। मंजिल भी कहाँ आती है ; यह राही तो दूसरी मंजिल ढूंढ चल पड़ता है। जिसे चलने से प्रेम हो उसे मंजिल से नहीं राह से लगाव होता है।

अनजान राह के तन्हा राही का सलाम!

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